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Thursday, 31 December 2020

हरलेन सैंडर्स



 KFC चिकन का सबसे अनूठा स्वाद ये तो सभी को पता ही हैं। पहले ये सड़क के किनारे चिकन बेचते थे। अपनी मसालों पर इन्हे इतना भरोसा रहा कि वह कुकर और मसाले कार में लेकर होटल-होटल के चक्कर लगाते रहे। उन्हे लगभग 1008 होटलों ने नकार दिया।फिर 1009 वी होटल ने उससे हां कहा और फिर चल पड़ा उनका कारवां। आज 125 देशों में 18000 से ज्यादा KFC रेस्तरां है।


 


जी हाँ हम बात कर रहे है आपके और हमारे पसंदीदा KFC की, आइए जानते है इसकी कहानी..


 


जिसके बारे में कहा जाता है कि इसने पैदा होते ही मां-बाप नहीं चिकन बोला होगा जी हाँ हम बात कर रहे है हरलेन सैंडर्स, जो की KFC के मालिक है। 16 साल की उम्र मे स्कूल छोड़ा, 17 साल की उम्र मे 4 बार नौकरियो से निकाला गया, इसके बाद जीवन मे और कई काम करने के बाद सैंडर्स ने एक सर्विस स्टेशन खोला। वहां कोई रेस्तूरेंट नहीं था इसलिए उन्हें वहां आने वाले लोगों को खाना खिलाने के लिए एक छोटा रेस्तूरेंट खोल लिया। कुछ समय में लोग इस सवाद को इतना पसंद करने लगे की रेस्तरां चल निकला। देखते देखते अब वह 142 लोगों के बैठने वाला रेस्तूरेंट बन गया।चिकन के साथ प्रयोग करते करते सैंडर्स नौ साल बाद आखिरकर उन्हें सफलता हाथ लगी। लोगों को दीवाना कर देने वाला उन्होंने गरम मसालों का एक मिश्रण तैयार किया जो बहुत ही जल्द लोगो को भा गया। यह मिश्रण आज भी एक रहस्य है।वर्षों तक सैंडर्स ने यह फार्मूला किसी को नहीं दिया। KFC आज भी अपना मसाला खुद ही तैयार करके सभी फ्रेंचाइजी को देता है। कहा जाता है कि जिंदगी का असली स्वाद संघर्ष के मसालों से ही निकलता हैं। सब कुछ ठीक चल रहा था मगर अचानक एक दिन सैंडर्स का रेस्तूरेंट बंद हो गया। 62 साल की उम्र में सैंडर्स पूरी तरह से बेरोजगार हो गए। धंधा चौपट होने से उनका हाथ पूरी तरह से खाली हो गया।


 


वे social security के सहारे अपना जीवन-यापन कर रहे थे। उनके समक्ष सबसे बड़ी समस्या ये थी कि जीवन-यापन के लिए अब क्या करें? पूंजी उनके पास थी नहीं। ऐसे में उन्हें एक विचार आया कि क्यों न उस वस्तु का ही उपयोग किया जाये, जो उनके पास उपलब्ध है। और वह वस्तु थी था – उनकी Fried Chicken की recipe। उनको अपनी रेस्पी पर पूरा भरोसा था जिसके कारण उन्होंने लगभग 600 जगहों का दौरा किया और हजारों रेस्तरां मालिकों से संपर्क किया। कई लोगों के उनका प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया और कई लोंगों ने उनका मजाक भी उड़ाया। लेकिन वे विचलित नहीं हुए और अपने दौरे जारी रखे। 1008 रेस्तरां मालिकों द्वारा reject कर दिए जाने के उपरांत आखिरकार 1009 वें रेस्तरां मालिक ने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और Fried Chicken की पहली franchisee sign कर ली। उस recipe के कारण उस रेस्तरां की बिक्री में असाधारण रूप से वृद्धि हुई, जिसे देखकर अन्य रेस्तरां मालिकों के भी कर्नल सैंडर्स से franchisee लेना प्रारंभ कर दिया और इस तरह KFC रेस्तरां चेन की शुरुआत हुई। हर दिन लगभग डेढ़ करोड़ लोग सैंडर्स की नायाब रेसिपी का मजा लेते हैं। दुनिया में फ्राइड चिकन का ब्रांड यदि कोई है तो वह है सिर्फ KFC एक सड़क किनारे से शुरु हुआ KFC आज लगभग 18 अरब का ब्रांड बन चुका है। भारत में 100 शहरों में 335 KFC आउटलेट है। फिलहाल केंटकी फ्राइड चिकन यम ब्रांड(PepsiCo) का हिस्सा है।


 


जब दुनिया मे 1991 मे बेहतर स्वास्थ के लिए तली चीजों के खिलाफ अभियान चला तब उसके बाद केंटकी फ्राइड चिकन का नाम छोटा कर के KFC रख दिया गया। यह नाम कंपनी के लिए बेहतर साबित हुए क्योंकि कंपनी अभी इस ब्रांड नेम के साथ दूसरे प्रोडक्ट भी बेच सकती थी और साथ ही ये नाम छोटा था तो सभी को याद भी हो जाता था। पुराना नाम तो केवल चिकन तक ही सीमित था। बाद मे kfc ने भारत के लिए खास वेज आइटम्स और कुछ शेक भी तैयार किए गए जो भारत मे काफी चर्चित रहे। 2006 के नवंबर में कंपनी कुछ नए लोगों के साथ सामने आई। नए मालिकों ने कर्नल का सफ़ेद कपड़ों में फोटो लगाया और उसे अपने आउट्लेट मे लगा दिया। कर्नल सैंडर्स ने भले ही कंपनी बेच दी हो पर उनके नाम और उनके द्वारा बनाए स्वाद को कोई कभी भी नहीं भूल सकता इसलिए तो नए मालिकों ने तस्वीर पुरानी ही रखी अर्थतः कर्नल सैंडर्स को कंपनी का लोगों बना दिया गया जिसे आज भी हम देखते है।


 


केंटकी के गवर्नर को हरलेन सैंडर्स का बनाया चिकन इतना पसंद आया कि उन्होंने सैंडर्स को कर्नल की उपाधि से सम्मानित किया और फिर उनके नाम मे कर्नेल जुड़ गया।


 


सैंडर्स के 11 मसालो का गोपनीय फ़ॉर्मूला आज भी लुइवल की तिजोरी मे बंद हैं। बहुत कम लोग ही जानते हैं कि उसमें कौन से मसाले कितने मात्रा में मिलाएं जाते हैं।

भीमराव अम्बेडकर

 


भारत को संविधान देने वाले महान नेता डॉ. भीम राव अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्य प्रदेश के एक छोटे से गांव में हुआ था। डा. भीमराव अंबेडकर के पिता का नाम रामजी मालोजी सकपाल और माता का भीमाबाई था। अपनी सेवा के अंतिम वर्ष उन्‍होंने और उनकी धर्मपत्नी भीमाबाई ने काली पलटन स्थित जन्मस्थली स्मारक की जगह पर विद्यमान एक बैरेक में गुजारे। कबीर पंथी पिता और धर्मर्मपरायण माता की गोद में बालक का आरंभिक काल अनुशासित रहा। भीमराव अंबेडकर का जन्म महार जाति में हुआ था जिसे लोग अछूत और बेहद निचला वर्ग मानते थे।भीमराव अंबेडकर के बचपन का नाम रामजी सकपाल था।


 


शिक्षा -


भीमराव का प्राथमिक शिक्षण दापोली के सतारा में हुआ था। उन्होंने बंबई(अभी का मुंबई) के एलफिन्स्टोन स्कूल से 1907 में मैट्रिक की परीक्षा पास की। मैट्रिक पास होने के अवसर पर स्कूल मे एक अभिनंदन समारोह आयोजित किया गया और उनके शिक्षक श्री कृष्णाजी अर्जुन केलुस्कर ने स्वलिखित पुस्तक 'बुद्ध चरित्र' उन्हें भेंट स्वरुप प्रदान की। भीमराव ने 1912 में मुबई विश्वविद्यालय से स्नातक परीक्षा बड़ौदा नरेश सयाजी राव गायकवाड की फेलोशिप पाकर पास की।


 


बी.ए. के बाद एम.ए. के अध्ययन हेतु बड़ौदा नरेश सयाजी गायकवाड़ की पुनः फेलोशिप पाकर वह अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय में दाखिल हुये। सन 1915 में उन्होंने स्नातकोत्तर उपाधि की परीक्षा पास की। इसके लिए उन्होंने अपना शोध 'प्राचीन भारत का वाणिज्य' लिखा था। उसके बाद 1916 में कोलंबिया विश्वविद्यालय अमेरिका से ही उन्होंने पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की, उनके पीएच.डी. शोध का विषय था 'ब्रिटिश भारत में प्रातीय वित्त का विकेन्द्रीकरण'। फेलोशिप समाप्त होने पर वे भारत ब्रिटेन होते हुये लौट रहे थे। उन्होंने वहां लंदन स्कूल ऑफ इकोनामिक्स एण्ड पोलिटिकल सांइस में एम.एससी. और डी. एस सी. और विधि संस्थान में बार-एट-लॉ की उपाधि हेतु स्वयं को पंजीकृत किया और भारत लौटे। सब से पहले छात्रवृत्ति की शर्त के अनुसार बडौदा नरेश के दरबार में सैनिक अधिकारी तथा वित्तीय सलाहकार का दायित्व स्वीकार किया। पूरे शहर में उनको किराये पर रखने को कोई तैयार नही होने की गंभीर समस्या से वह कुछ समय के बाद ही मुंबई वापस आये।


 


दलित प्रतिनिधित्व -


अपनी अधूरी पढाई को पूरी करने हेतु पार्ट टाईम अध्यापकी और वकालत कर अपनी धर्मपत्नी रमाबाई के साथ परेल में डबक चाल और श्रमिक कॉलोनी में रहकर जीवन निर्वाह किया। सन 1919 में डॉ. अम्बेडकर ने राजनीतिक सुधार हेतु गठित साउथबरो आयोग के समक्ष राजनीति में दलित प्रतिनिधित्व के पक्ष में साक्ष्य दी।


अशिक्षित और निर्धन लोगों को जागरुक बनाने के लिया काम -


मूक और अशिक्षित और निर्धन लोगों को जागरुक बनाने के लिये उन्होंने मूकनायक और बहिष्कृत भारत साप्ताहिक पत्रिकायें संपादित भी की और बाद मे अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी करने के लिये वह लंदन और जर्मनी जाकर वहां से एम. एस सी., डी. एस सी., और बैरिस्टर जैसी महत्वपूर्ण उपाधियाँ प्राप्त की। साम्राज्यीय वित्त के प्राप्तीय विकेन्द्रीकरण का विश्लेषणात्मक अध्ययन उनके एम. एस सी. का शोध विषय था और रूपये की समस्या उसका उद्भव और उपाय और भारतीय चलन और बैकिंग का इतिहास उनके डी.एससी उपाधि का विषय था।


 


बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर को कोलंबिया विश्वविद्यालय ने एल.एलडी और उस्मानिया विश्वविद्यालय ने डी. लिट्. की मानद उपाधियों से सम्मानित किया था। इस प्रकार डॉ. अम्बेडकर वैश्विक युवाओं के लिये प्रेरणा बन गये क्योंकि उनके नाम के साथ बीए, एमए, एमएससी, पीएचडी, बैरिस्टर, डीएससी, डी.लिट्. आदि कुल 26 उपाधियां जुडी है। भारत रत्न डॉ. बी. आर. अम्बेडकर ने अपने जीवन के 65 वर्षों में देश को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षणिक, धार्मिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, औद्योगिक, संवैधानिक इत्यादि विभिन्न क्षेत्रों में अनगिनत कार्य करके राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया। 


 


भारत लौटने के बाद, भीमराव अम्बेडकर ने जाति के भेदभाव के खिलाफ लड़ने का फैसला किया, 1919 में भारत सरकार अधिनियम की तैयारी के लिए दक्षिणबोरो समिति से पहले अपनी गवाही में अम्बेडकर ने कहा कि अछूतों और अन्य हाशिए समुदायों के लिए अलग निर्वाचन प्रणाली होनी चाहिए। उन्होंने दलितों और अन्य धार्मिक बहिष्कारों के लिए आरक्षण का विचार किया।


 


उन्होंने 1920 में कलकापुर के महाराजा शाहजी द्वितीय की सहायता से “मूकनायक” नामक समाचार पत्र का शुभारंभ किया। इस घटना ने देश के सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में भी भारी हंगामा पैदा कर दिया। अम्बेडकर ने लोगों तक पहुंचने और सामाजिक बुराइयों की खामियों को समझने के तरीकों को खोजना शुरू कर दिया।


 


1927 तक अम्बेडकर ने दलित अधिकारों के लिए पूर्ण गति से आंदोलन की शुरुआत की। उन्होंने सार्वजनिक पेयजल स्रोतों को सभी के लिए खुला और सभी जातियों के लिए सभी मंदिरों में प्रवेश करने की मांग की। उन्होंने नासिक में कलाराम मंदिर में घुसने के लिए भेदभाव की वकालत करने के लिए हिंदुत्ववादियों की निंदा की और प्रतीकात्मक प्रदर्शन किए।


 


1932 में पूना संधि पर डॉ. अंबेडकर और हिंदू ब्राह्मणों के प्रतिनिधि पंडित मदन मोहन मालवीय के बीच सामान्य मतदाताओं के भीतर, अस्थायी विधानसभाओं में अस्पृश्य वर्गों के लिए सीटों के आरक्षण के लिए पूना संधि पर हस्ताक्षर किए गए।


 


1936 में अम्बेडकर ने ‘स्वतंत्र लेबर पार्टी’ की स्थापना की। 1937 में केंद्रीय विधान सभा के चुनाव में, उनकी पार्टी ने 15 सीटें जीतीं। अम्बेडकर ने अपने राजनीतिक दल के परिवर्तन को अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ में बदल दिया, हालांकि इसने भारत के संविधान सभा के लिए 1946 में हुए चुनावों में खराब प्रदर्शन किया।


 


अम्बेडकर ने कांग्रेस और महात्मा गांधी के अछूत समुदाय को हरिजन कहने के फैसले पर आपत्ति जताई। उन्होंने कहा कि अछूत समुदाय के सदस्य भी समाज के अन्य सदस्यों के समान हैं। तब अंबेडकर को रक्षा सलाहकार समिति और वाइसराय के कार्यकारी परिषद में श्रम मंत्री के रूप में नियुक्त किया गया था।


 


1942 में ‘शेड्युल्ट कास्ट फेडरेशन’ इस नाम के पक्ष की स्थापना की। 1942 से 1946 तक उन्होंने गवर्नर जनरल की कार्यकारी मंडल में “श्रम मंत्री” बना दिया। एक विद्वान के रूप में उनकी प्रतिष्ठा स्वतंत्र भारत के पहले कानून मंत्री और स्वतंत्र समिति का गठन करने के लिए जिम्मेदार समिति के अध्यक्ष के रूप में उनकी नियुक्ति का नेतृत्व किया।


 


डॉ अंबेडकर को 29 अगस्त, 1947 को संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया था। अम्बेडकर ने समाज के सभी वर्गों के बीच एक वास्तविक पुल के निर्माण पर जोर दिया। उनके अनुसार, अगर देश के अलग -अलग वर्गों के अंतर को कम नहीं किया गया, तो देश की एकता बनाए रखना मुश्किल होगा। उन्होंने धार्मिक, लिंग और जाति समानता पर विशेष जोर दिया।


 


वह शिक्षा, सरकारी नौकरियों और सिविल सेवाओं में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के लिए आरक्षण शुरू करने के लिए विधानसभा का समर्थन प्राप्त करने में सफल रहे।


 


1947 में जब भारत आजाद हुआ तब प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने डॉ. भीमराव अंबेडकर को कानून मंत्री के रूप में संसद से जुड़ने के लिए आमंत्रित किया। डॉ. अम्बेडकर को संविधान समिति का अध्यक्ष चुना गया और फरवरी 1948 को डॉ. अम्बेडकर ने भारत के लोगों के समक्ष संविधान का प्रारूप प्रस्तुत किया जिसे 26 जनवरी 1949 को लागू किया गया।


 


अक्टूबर 1948 में डॉ. अम्बेडकर ने हिन्दू कानून को सुव्यवस्थित करने की एक कोशिश में हिन्दू कोड बिल संविधान सभा में प्रस्तुत किया। बिल को लेकर कांग्रेस पार्टी में भी काफी मतभेद थे। बिल पर विचार के लिए इसे सितम्बर 1951 तक स्थगित कर दिया गया। बिल को पास करने के समय इसे छोटा कर दिया गया। अम्बेडकर ने उदास होकर कानून मंत्री के पद से त्याग पत्र दे दिया।


 


1950 में, बौद्ध विद्वानों और भिक्षुओं के सम्मेलन में भाग लेने के लिए अम्बेडकर श्रीलंका गए थे। उनकी वापसी के बाद उन्होंने बौद्ध धर्म पर एक किताब लिखने का फैसला किया और जल्द ही, बौद्ध धर्म में परिवर्तित हो गये। अपने भाषणों में, अम्बेडकर ने हिंदू अनुष्ठानों और जाति विभाजनों को झुठलाया। अंबेडकर ने 1955 में भारतीय बौद्ध महासभा की स्थापना की।


 


1954 के बाद से अम्बेडकर मधुमेह और कमजोर दृष्टि सहित गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित थे। 65 साल की उम्र में 6 दिसंबर, 1956 को दिल्ली में उनकी अपने घर में मृत्यु हो गई। 1990 में ‘बाबा साहेब’ को देश के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया।

सरदार मिल्खा सिंह

 


मिल्खा सिंह एक ऐसे भारतीय प्रसिद्ध धावक और एथलीट है जिन्हे उड़न सिख और अंग्रेजी मे फ्लाइइंग सिख के नाम से जाना जाता है।इनका जन्म पाकिस्तान के लायलपुर में 8 अक्टूबर, 1935 को हुआ था। भारत के विभाजन के बाद हुए दंगों में मिलखा सिंह ने अपने माँ-बाप और भाई-बहन खो दिया। अंततः वे शरणार्थी बन के ट्रेन द्वारा पाकिस्तान से दिल्ली आए। दिल्ली में वह अपनी शदी-शुदा बहन के घर पर कुछ दिन रहे। कुछ समय शरणार्थी शिविरों में रहने के बाद वह दिल्ली के शाहदरा इलाके में एक पुनर्स्थापित बस्ती में भी रहे। जब उन्होंने कटक में हुए राष्ट्रीय खेलों में 200 तथा 400 मीटर में रिकॉर्ड तोड़ दिए तब मिल्खा सिंह का नाम सुर्ख़ियों में आया। 1958 में ही उन्होंने टोकियो में हुए एशियाई खेलों में 200 तथा 400 मीटर में एशियाई रिकॉर्ड तोड़ते हुए स्वर्ण पदक जीते। इसी वर्ष में कार्डिफ (ब्रिटेन) में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में भी स्वर्ण पदक जीता भी जीता। उनकी इन्हीं सफलताओं के कारण 1958 में भारत सरकार द्वारा उन्हें ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया। मिल्खा सिंह का नाम ‘फ़्लाइंग सिख’ पड़ने का भी एक बडा कारण था। लाहौर में भारत-पाक प्रतियोगीता में एशिया के प्रतिष्ठित धावक पाकिस्तान के अब्दुल खालिक को 200 मीटर में पछाड़ते हुए तेज़ी से आगे निकल गए, तब लोगों ने कहा- ”मिल्खा सिंह दौड़ नहीं रहे थे, उड़ रहे थे।” बस उनका नाम ‘फ़्लाइंग सिख’ पड़ गया।

 

उन्होंने 1968 के रोम ओलंपिक में 400 मीटर दौड़ में ओलंपिक रिकॉर्ड पिछले 59 सेकंड का रिकॉर्ड तोड़ते हुए दौड़ पूरी की और मिल्खा सिंह ने अपनी खेल की योग्यता सिद्ध की। यह पंजाब की समृद्ध विरासत का हिस्सा बन चुकी है और इस उपलब्धि को पंजाब में परी-कथा की भांति याद किया जाता है। ओलंपिक मे उनके साथ विश्व के श्रेष्ठतम एथलीट हिस्सा ले रहे थे। 1960 में रोम ओलंपिक में मिल्खा सिंह ने 400 मीटर दौड़ की प्रथम हीट में द्वितीय स्थान (47.6 सेकंड) पाया था। फिर सेमी फाइनल में 45.90 सेकंड का समय निकालकर अमेरिकी खिलाड़ी को हराकर द्वितीय स्थान पाया था और वह फाइनल में वह सबसे आगे दौड़ रहे थे। उन्होंने देखा कि सभी खिलाड़ी काफी पीछे हैं अत: उन्होंने अपनी गति थोड़ी धीमी कर दी ,परन्तु दूसरे खिलाड़ी गति बढ़ाते हुए उनसे आगे निकल गए मगर पूरा जोर लगाने पर भी वो उन खिलाड़ियों से आगे नहीं निकल सके। अमेरिकी खिलाड़ी ओटिस डेविस और कॉफमैन ने 44.8 सेकंड का समय निकाल कर प्रथम व द्वितीय स्थान प्राप्त किया यही नहीं दक्षिण अफ्रीका के मैल स्पेन्स ने 45.4 सेकंड में दौड़ पूरी कर तृतीय स्थान प्राप्त किया। मिल्खा सिंह ने 45.6 सेकंड का समय निकाल कर मात्र 0.1 सेकंड से कांस्य पदक पाने का मौका खो दिया।

 

मिल्खा सिंह को बाद में अहसास हुआ कि गति को शुरू में कम करना घातक सिद्ध हुआ। विश्व के महान एथलीटों के साथ प्रतिस्पर्धा में वह पदक पाने से चूक गए। मिल्खा सिंह ने खेलों में उस समय सफलता प्राप्त की जब खिलाड़ियों के लिए कोई सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं, न ही उनके लिए किसी ट्रेनिंग की व्यवस्था थी। आज इतने वर्षों बाद भी कोई एथलीट ओलंपिक में पदक पाने में कामयाब नहीं हो सका है। रोम ओलंपिक में मिल्खा सिंह इतने लोकप्रिय हो गए थे कि जब वह स्टेडियम में घुसते थे, दर्शक उनका जोशपूर्वक स्वागत करते थे मगर वहाँ वह टॉप के खिलाड़ी नहीं थे, परन्तु सर्वश्रेष्ठ धावकों में उनका नाम अवश्य था। उनकी लोकप्रियता का दूसरा कारण उनकी बढ़ी हुई दाढ़ी व लंबे बाल थे। लोग उस वक्त सिख धर्म के बारे में अधिक नहीं जानते थे। अत: लोगों को लगता था कि कोई साधु इतनी अच्छी दौड़ लगा रहा है। उस वक्त ‘पटखा’ का चलन भी नहीं था, अत: सिख सिर पर रूमाल बाँध लेते थे। मिल्खा सिंह की लोकप्रियता का एक अन्य कारण यह था कि रोम पहुंचने के पूर्व वह यूरोप के टूर में अनेक बड़े खिलाडियों को हरा चुके थे और उनके रोम पहुँचने के पूर्व उनकी लोकप्रियता की चर्चा वहाँ पहुंच चुकी थी।

 

दो घटनाए मिल्खा सिंह के जीवन में बहुत महत्व रखती हैं। उनमेसे पहला भारत-पाक विभाजन की घटना है ।इसमे उनके माता-पिता का कत्ल हो गया था और अन्य रिश्तेदारों को भी खोना पड़ा था। दूसरी घटना रोम ओलंपिक की है, जिसमें वह पदक पाने से थोड़े से के लिए चूक गए थे। जब मिल्खा सिंह को पाकिस्तान में दौड़ प्रतियोगिता में भाग लेने का आमंत्रण मिल्खा तो वह विशेष उत्साहित नहीं हुए क्युकी अगर वो पाकिस्तान जाते तो उन्हे उनकी पहली घटना बहुत याद आती। फिर भी उन्हें एशिया के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी के साथ दौड़ने के लिए मनाया गया और बहुत प्रयत्न के बाद वो माँ गए। उस वक्त उनका मुकाबला पाकिस्तान का सर्वश्रेष्ठ धावक अब्दुल खादिक से था जो अनेक एशियाई प्रतियोगिताओं में 200 मीटर की दौड़ जीत चुका था। मगर भविष्य किसने देखा था ज्यों ही 200 मीटर की दौड़ शुरू हुई ऐसा लगा कि मानो मिल्खा सिंह दौड़ नहीं रहे है , उड़ रहें हों। उन्होंने अब्दुल खादिक को बहुत ही ज्यादा पीछे छोड़ दिया। दर्शकों को उनकी दौड़ को इतने आश्चर्यचकित होकर देख रहे थे मानो उन्हे यकीन ही नहीं हो रहा हो। इसे देखते हुए घोषणा की गई कि मिल्खा सिंह दौड़ने नहीं रहे है उड़ रहे है और तब से मिल्खा सिंह को ‘फ़्लाइंग सिख’ कहा जाने लगा। जब ये दौड़ हो रहा था तब उस वक्त पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अय्यूब भी मैदान मे खेल देखने के लिए मौजूद थे। दौड़ में जीत के बाद मिल्खा सिंह को राष्ट्रपति से मिलने के लिए वि.आई.पी.(VIP) गैलरी में ले जाया गया। मिल्खा सिंह ने अपनी जीती गई ट्राफियां, पदक,और यहाँ तक की अपने जूते (जिसे पहन कर उन्होंने विश्व रिकार्ड तोड़ा था), ब्लेजर यूनीफार्म सब कुछ उन्होंने जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में बने राष्ट्रीय खेल संग्रहालय को दान में दे दिए। एशियाई खेल जो 1962 में हुआ था उसमे भी मिल्खा सिंह ने स्वर्ण पदक जीता। खेलों से रिटायरमेंट के बाद वह अभी पंजाब में खेल, युवा तथा शिक्षा विभाग में अतिरिक्त खेल निदेशक के पद पर कार्य कर रहे हैं।

 

पूर्व अन्तरराष्ट्रीय खिलाड़ी निर्मल से उनका विवाह हुआ था। मिल्खा सिंह के एक पुत्र तथा तीन पुत्रियां है। उनका पुत्र जिनका नाम चिरंजीव मिल्खा सिंह जिन्हे जीव मिल्खा सिंह से भी जाना जाता है। वो भारत के टॉप गोल्फ खिलाड़ियों में से आते है यही नहीं उन्होंने राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेकों पुरस्कार भी जीत चुके है। बीजिंग के एशियाई खेलों जो 1990 में हुआ था उसमे भी उन्होंने भाग लिया था। मिल्खा सिंह की एक इच्छा है यू बोले की उनका सपना है कि कोई भारतीय एथलीट ओलंपिक पदक जीते, जो पदक वह अपनी एक छोटी-सी गलती के कारण जीतने से चूक गए थे। मिल्खा सिंह कहा करते थे कि जब वह अपने पद से रिटायर होंगे उसके बाद वो एक एथलेटिक अकादमी चंडीगढ़ या आसपास खोलें ताकि वह देश के लिए श्रेष्ठ एथलीट तैयार कर सकें जो हमारे देश का नाम रौशन कर सके। मिल्खा सिंह अपनी लौह इच्छा शक्ति के दम पर ही इस मुकाम पर पहुँच सके, जहाँ आज कोई भी खिलाड़ी औपचारिक ट्रेनिंग के भी नहीं पहुँच सका ।

 

वर्ष 1958 के एशियाई खेलों में मिल्खा सिंह को मिली सफलताओं के सम्मान में, उन्हें भारतीय सिपाही के पद से कनिष्ठ कमीशन अधिकारी पर पदोन्नत कर दिया गया। अंततः वह पंजाब शिक्षा मंत्रालय में खेल निदेशक बने और वर्ष 1998 में इस पद से सेवानिवृत्त हुए। मिल्खा सिंह ने जीत में मिले पदक को देश को समर्पित कर दिये थे। शुरुआत में इन सभी पदकों को नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में प्रदर्शित किया गया था, परन्तु बाद में इन्हें पटियाला में एक खेल संग्रहालय में स्थानांतरित कर दिया गया। मिल्खा सिंह द्वारा रोम के ओलंपिक खेलों में पहने गये जूते को भी खेल संग्रहालय में प्रदर्शित कर रखा गया है। इस एडिडास जूते की जोड़ी को मिल्खा सिंह ने वर्ष 2012 में, राहुल बोस द्वारा आयोजित की गई एक चैरिटी नीलामी में दान कर दिया था, जिसे उन्होंने वर्ष 1960 के दशक के फाइनल में पहना था।

सचिन तेंदुलकर

 


सचिन तेंदुलकर

24 अप्रैल 1973 को राजापुर के मराठी ब्राह्मण परिवार में दादर, मुंबई के निर्मल नर्सिंग होम में सचिन तेंदुलकर का जन्म हुआ। सचिन तेंदुलकर के पिता का नाम रमेश तेंदुलकर था जो की महाराष्ट्र के सबसे प्रसिद्ध उपन्यासकार थे और उनकी माँ रजनी एक बीमा एजेंट थीं। सचिन के पिता ने सचिन देव बर्मन के नाम पर उनका नाम सचिन रखा था, जोकि उनके पसंदीदा संगीत निर्देशक थे। सचिन अपने 4 भाई व बहन में सबसे छोटे हैं, उनके बड़े भाई नितिन और उसके बाद उनकी बहन सविता हैं। 1995 में सचिन तेंदुलकर का विवाह अंजलि तेंदुलकर से 1995 में हुआ। सचिन के दो बच्चे हैं – अर्जुन और सारा।


 


सचिन ने अपने बचपन के कुछ साल बांदा ईस्ट के साहित्य सहवास सहकारी आवास सोसायटी में व्यतीत किए। सचिन वर्तमान की तुलना में अपने बचपन में बिल्कुल विपरीत थे, क्योंकि उन्हे स्कूल में लड़ाई करना या स्कूल में पहली बार आने वाले बच्चों का धमकाना पसंद था।


 


अपनी किशोरावस्था में सचिन जॉन मैकनेरो, जो अमेरिका के प्रमुख टेनिस खिलाड़ियों में से एक हैं, के बहुत बड़े प्रशंसक थे।सचिन के शरारती स्वभाव को बड़ी मुश्किल से छुड़ाया और उन्हें वर्ष 1984 में क्रिकेट के प्रति दिलचस्पी दिखाने पर जोर दिया। उन्होंने सचिन की रमाकांत आचरेकर से भेंट करवाई, जो अपने समय के सबसे प्रसिद्ध क्लब क्रिकेटर के साथ-साथ एक बेहतरीन कोच भी थे। रमाकांत आचरेकर दादर के शिवा पार्क में क्रिकेट का अभ्यास करवाते थे।


 


आचरेकर ने सचिन की प्रतिभा को देखा, जो उन्हें काफी पसंद आयी, उसके बाद उन्होंने सचिन से शारदाश्रम विद्यामंदिर (इंग्लिस) माध्यमिक स्कूल को छोड़कर, अपने स्कूल में प्रवेश लेने के लिए कहा, जो दादर में ही स्थित था। यह स्कूल स्थानीय क्रिकेट मंडली में शीर्ष पर था और उस समय, यहाँ से कई प्रसिद्ध क्रिकेटर उभरकर सामने आए थे। इससे पहले, सचिन ने बांद्रा ईस्ट के भारतीय एजुकेशन सोसाइटी के न्यू इंग्लिश स्कूल में अध्ययन किया था। एम०आर०एफ० पेस फाउंडेशन में सचिन ने गेंदबाजी के अभ्यास की पूरी कोशिश की मगर वहाँ के कोच श्री डेनिस लिली ने उन्हें पूर्ण रूप से अपनी बल्लेबाजी पर ध्यान देने को कहा। 


अपने कोच के साथ जब सचीन क्रिकेट का अभ्यास किया करते थे तो उनके कोच स्टंप पर एक रूपये का सिक्का रखते थे और कहते थे की जो गेंदबाज सचिन को हराएगा ये सिक्का उसका और यदि नहीं हरा पाया या फिर सचिन ज्यादा देर तक मैच में टिका रहेगा तो ये सिक्का सचिन का। एक इंटरव्यू मे सचिन ने बताया की उन्होंने करीब 13 सिक्के जीते और जो की उनके सभी रुपयों में ज्यादा महत्व रखते हैं। 


 


सन् 1988 में स्कूल के एक हौरिस शील्ड मैच के दौरान साथी बल्लेबाज विनोद काम्बली के साथ सचिन ने ऐतिहासिक 664 रनों की अविजित साझेदारी की| इस धमाकेदार जोड़ी के अद्वितीय प्रदर्शन के कारण एक गेंदबाज तो रोने ही लगा और सचिन के विरोधी टीम ने तो मैच को आगे खेलने से ही मना कर दिया। इस मैच में 320 रन और प्रतियोगिता में हजार से भी ज्यादा रन बनाये| इससी बलेबाजी और जुनून सेकह कर उन्हे 15 साल की उम्र में उन्हे मुंबई टीम में शामिल कर लिया गया।


 


सचिन ने सन 1990 में इंग्लैंड दौरे में अपने टेस्ट क्रिकेट का पहला शतक लगाया जिसमे उन्होंने नाबाद 119 रन बनाये और इसके बाद ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका के टेस्ट मुकाबलों में भी सचिन का प्रदर्शन यही रहा और उन्होंने कई टेस्ट शतक भी जड़े। सचिन ने 1992-93 में अपना पहला घरेलु टेस्ट मैच इंग्लैंड के खिलाफ भारत में खेला जो उनका टेस्ट कैरियर का 22वा टेस्ट मैच था। सचिन की प्रतिभा और क्रिकेट तकनीक को देखते हुए सभी ने उन्हें डॉन ब्रेडमैन की उपाधि दी गई जिसे बाद में डॉन ब्रेडमैन ने भी खुद इस बात को स्वीकार किया।


 


सचिन के कोच अचरेकर सचिन को सुबह स्कूल जाने से पहले व शाम को स्कूल से आने के बाद क्रिकेट की ट्रेनिंग दिया करते थे| सचिन बहुत मेहनती थे, वे लगातार प्रैक्टिस किया करते थे, जब वे थक जाया करते थे, तब कोच स्टंप में 1 रुपय का कॉइन रख दिया करते थे, जिससे सचिन आगे खेलते रहे| सचिन खेलते रहते थे और पैसे जोड़ा करते थे| 1988 में सचिन ने स्टेट लेवल के मैच में मुंबई की तरफ से खेलकर अपने करियर की पहली सेंचुरी मारी थी| पहले ही मैच के बाद उनका चयन नेशनल टीम के लिए हो गया था और 11 महीनों बाद सचिन ने पहली बार इंटरनेशनल मैच पाकिस्तान के खिलाफ खेला, जो उस समय की सबसे दमदार टीम मानी जाती थी|


 


इसी सीरीज में सचिन ने पहली बार वन डे मैच खेला| 1990 में सचिन ने इंग्लैंड के हिलाफ़ पहला टेस्ट सीरीज खेली, जिसमें उन्होंने 119 रनों की पारी खेली और दुसरे नंबर के सबसे छोटे प्लेयर बन गए जिन्होंने सेंचुरी मारी| 1996 के वर्ल्ड कप के समय सचिन को टीम का कप्तान बना दिया गया| 1998 में सचिन ने कप्तानी छोड़ दी, व 1999 में उन्हें फिर कप्तान बना दिया गया| कप्तानी के दौरान सचिन ने 25 में से सिर्फ 4 टेस्ट मैच जीते थे, जिसके बाद से सचिन ने कभी भी कप्तानी ना करने का फैसला कर लिया| 


 


आज सचिन 100 टैस्ट मैच खेलने वाला विश्व का 17वां खिलाड़ी बन चुका है। सचिन ने 1989 में पाकिस्तान के विरुद्ध प्रथम अन्तरराष्ट्रीय मैच खेला था। तब सचिन केवल 16 वर्ष का था और प्रथम पारी में वह बहुत ही नर्वस व घबराया हुआ था। सचिन को तब यूं महसूस हुआ था कि शायद वह जिन्दगी में आगे अन्तरराष्ट्रीय मैच और नहीं खेल सकेगा।


 


अकरम और वकार की तेज गेंदों के सामने वह केवल 15 रन ही बना सका था। लेकिन दूसरे टेस्ट में जब उसे खेलने का मौका मिला तब उसने 59 रन बना लिए और उसके भीतर आत्मविश्वास जाग उठा। सचिन देखने में सीधा-सादा इंसान है। वह अति प्रसिद्ध हो जाने पर भी नम्र स्वभाव का है। वह अपने अच्छे व्यवहार का श्रेय अपने पिता को देता है। उसका कहना है- ”मैं जो कुछ भी हूं अपने पिता के कारण हूँ। उन्होंने मुझ में सादगी और ईमानदारी के गुण भर दिए हैं। वह मराठी साहित्य के शिक्षक थे और हमेशा समझाते थे कि जिन्दगी को बहुत गम्भीरता से जीना चाहिए। जब उन्हें अहसास हुआ कि शिक्षा नहीं, क्रिकेट मेरे जीवन का हिस्सा बनने वाली है, उन्होंने उस बात का बुरा नहीं माना। उन्होंने मुझसे कहा कि ईमानदारी से खेलो और अपना स्तर अच्छे से अच्छा बनाए रखो। मेहनत से कभी मत घबराओ।” सचिन को भारतीय क्रिकेट टीम का कैप्टन बनाया गया था, परन्तु 2000 में उन्होंने मोहम्मद अजहरूद्‌दीन के आने के बाद वह पद छोड़ दिया।


 


सचिन, जिसे सुपर स्टार कहा जाता है, जीनियस कहा जाता है, जिसका एह-एक स्ट्रोक महत्त्वपूर्ण माना जाता है, अपने पुराने मित्रों को आज भी नहीं भूला है चाहे वह विनोद काम्बली हो या संजय मांजरेकर। जब मुम्बई की टीम में सचिन ने खेलना आरम्भ किया था तो संजय ने राष्ट्रीय टीम की ओर से खेला था। ये दोनों पुराने मित्र हैं। क्रिकेट के अतिरिक्त सचिन को संगीत सुनना और फिल्में देखना पसन्द है। सचिन क्रिकेट को अपनी जिन्दगी और अपना खून मानते हैं। क्रिकेट के कारण प्रसिद्धि पा जाने पर वह किस चीज का आनन्द नहीं ले पाते-यह पूछने पर वह कहते हैं कि दोस्तों के साथ टेनिस की गेंद से क्रिकेट खेलना याद आता है। 29 वर्ष और 134 दिन की उम्र में सचिन ने अपना 100वां टैस्ट इंग्लैण्ड के खिलाफ खेला। 5 सितम्बर, 2002 को ओवल में खेले गए इस मैच से सचिन 100वां टैस्ट खेलने वाला सबसे कम उम्र का खिलाड़ी बन गया।


 


सचिन के क्रिकेट खेल की औपचारिक शुरुआत तभी हो गई जब 12 वर्ष की उम्र में क्लब क्रिकेट (कांगा लीग) के लिए उसने खेला। सचिन बड़ी-बड़ी कम्पनियों का ब्रांड एम्बेसडर बना है। एम. आर. एफ. टायर, पेप्सी, एडिडास, वीजा मास्टर कार्ड, फिएट पैलियो जैसी नामी कम्पनियों ने उसे अपना ब्रांड एम्बेसडर बनाया। बड़ी कम्पनियों में विज्ञापन के लिए उसकी सबसे ज्यादा मांग है। 1995 में सचिन ने 70 लाख पचास हजार (7.5 मिलियन) डालर का वर्ल्ड टेल कम्पनी के साथ 5 वर्षीय अनुबंध किया। इससे सचिन विश्व का सबसे धनी क्रिकेट खिलाड़ी बन गया। इसके पूर्व ब्रायनलारा ने ब्रिटेन की कम्पनी के साथ सर्वाधिक 10 लाख 20 हजार डॉलर का अनुबंध किया था। सचिन ने 2002 में एक नया कीर्तिमान स्थापित किया।


 


अन्तरराष्ट्रीय मैचों में 20000 रन बनाने वाला वह एकमात्र खिलाड़ी बन गया है। उसने 102 टेस्ट मैचों में खेली गई 162 पारी में 8461 रन बनाने के अतिरिक्त 300 एक दिवसीय मैचों में 11544 रन बनाने का रिकार्ड स्थापित किया है। उसके बारे में कहा जाता है वह विवियन रिचर्ड, मार्क वा, ब्रायन लारा सब को मिलाकर एक है। तेंदुलकर मानो एक आदमी की सेना है। वह शतक बनाता है, उसे गेंद दे दो, वह विकेट ले लेता है, वह टीम के अच्छे फील्डरों में से एक है। हम भाग्यशाली हैं कि वह भारतीय हैं। 25 मई, 1995 को सचिन ने डाक्टर अंजलि मेहता से विवाह कर लिया। उनके दो बच्चे हैं। बड़ी बच्ची का नाम ‘सराह’ है जिसका अर्थ है कीमती। छोटा बच्चा बेटा है। सचिन की अंजलि से 1990 में मुलाकात हुई। सचिन ने एक बार इंटरव्यू में कहा था- ”मुझे उससे प्यार इसलिए हो गया क्योंकि उसके गाल गुलाबी हो उठते हैं।” सचिन का पूरा नाम सचिन रमेश तेंदुलकर है।


 


उसका नाम उसके माता-पिता ने अपने पंसदीदा संगीत निर्देशक सचिन देव बर्मन के नाम पर रखा। सचिन ने अपना पहला साक्षात्कार दादर के एक ईरानी रेस्टोरेंट में अपने बड़े भाई से दिलवाया था क्योंकि तब उसमें अधिक आत्मविश्वास नहीं था। सचिन को बचपन में क्रिकेट से कोई विशेष लगाव न था। क्रिकेट में शामिल होने पर वह तेज गेंदबाज बनना चाहता था, इसलिए डेनिस लिली से प्रशिक्षण के लिए एम. आर. एफ. पेस एकेडमी में गया। तब उसे बताया गया कि उसे बल्लेबाजी पर ध्यान लगाना चाहिए। सचिन को अपनी मां के हाथ का भोजन बहुत पसन्द है विशेषकर सी-फूड। इस कारण उसके आने पर वह विशेष रूप से मछली मंगवाती है।

स्वामी विवेकानंद

 


स्वामी विवेकानंद का पूर्व नाम नरेंद्र नाथ दत्त था। वो भारतीय हिंदु सन्यासी और 19 वी शताब्दी के संत रामकृष्ण जी के मुख्य शिष्य थे। भारत का आध्यात्मिकता से परिपूर्ण दर्शन विदेशो में स्वामी विवेकानंद की वक्तृता के कारण ही पहोचा। भारत में हिंदु धर्म को बढ़ाने में उनकी अहम भूमिका रही और भारत को औपनिवेशक बनाने उनका सहयोग रहा। रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन की स्थापना विवेकानंद ने की, जो आज भी भारत में सफलता पूर्वक चल रहा है। उन्होंने एक भाषण की शुरुवात “मेरे अमेरिकी भाइयो और बहनों” के साथ करने के लिए जाना जाता है। यह भाषण शिकागो विश्व धर्म सम्मलेन में उन्होंने ने हिंदु धर्म की पहचान कराते हुए कहा था। उनका जन्म कलकत्ता के एक बंगाली कायस्थ परिवार में हुआ था। स्वामीजी का ध्यान बचपन से ही आध्यात्मिकता की और था। उनके गुरु रामकृष्ण का उनपर सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा, जिनसे उन्होंने जीवन जीने का सही उद्देश जाना, स्वयम की आत्मा को जाना और भगवान की सही परिभाषा को जानकर उनकी सेवा की और सतत अपने दिमाग को भगवान के ध्यान में लगाये रखा।


 


रामकृष्ण की मृत्यु के बाद, विवेकानंद ने सभी भारतीय उपमहाद्वीप की यात्रा की और ब्रिटिश कालीन भारत में लोगो की परिस्थितियों को जाना और उसे समझा। बाद में उन्होंने यूनाइटेड स्टेट की यात्रा की जहां उन्होंने 1893 में विश्व धर्म सम्मलेन में भारतीयों के हिंदु धर्म का प्रतिनिधित्व किया। विवेकानंद ने यूरोप, इंग्लैंड और यूनाइटेड स्टेट में हिंदु शास्त्र की 100 से भी अधिक सामाजिक और वैयक्तिक क्लासेस ली और भाषण भी दिए। भारत में विवेकानंद एक देशभक्त संत के नाम से जाने जाते है और उनका जन्मदिन राष्ट्रिय युवा दिन के रूप में मनाया जाता है।


 


प्रारंभिक जीवन, जन्म और बचपन –


स्वामी विवेकानंद का पैदाइशी नाम विरेश्वर था मगर घर मे सभी उन्हे प्यार से “नरेंद्र”बुलाते थे। उनका पूरा नाम नरेन्द्रनाथ दत्ता (नरेंद्र, नरेन्) थे जो 12 जनवरी 1863 को मकर संक्रांति के समय उनके पैतृक घर कलकत्ता के गौरमोहन मुखर्जी स्ट्रीट में हुआ, जो ब्रिटिशकालीन भारत की राजधानी थी। उनका परिवार एक पारंपरिक कायस्थ परिवार था, विवेकानंद के 9 भाई-बहन थे। उनके पिता, विश्वनाथ दत्ता, कलकत्ता हाई कोर्ट के वकील थे। उनके दादा का नाम दुर्गाचरण दत्ता थे, वे संस्कृत और पारसी के महान विद्वान मे से एक थे। 


 


बचपन से ही नरेन्द्र अत्यंत कुशाग्र बुद्धि के और नटखट थे। अपने साथी बच्चों के साथ तो वे शरारत करते ही थे, मौका मिलने पर वे अपने अध्यापकों के साथ भी शरारत करने से नहीं चूकते थे। नरेन्द्र के घर में नियमपूर्वक रोज पूजा-पाठ होता था और इनके धार्मिक प्रवृत्ति की होने के कारण माता भुवनेश्वरी देवी को पुराण, रामायण, महाभारत आदि की कथा सुनने का बहुत शौक था। कथावाचक प्रायः इनके घर आते रहते थे। नियमित रूप से भजन-कीर्तन भी होता रहता था। परिवार के धार्मिक तथा आध्यात्मिक वातावरण के प्रभाव से बालक नरेन्द्र के मन में बचपन से ही धर्म एवं अध्यात्म के संस्कार गहरे पड़ गए। माता-पिता के संस्कारों और धार्मिक वातावरण के कारण बालक के मन में बचपन से ही ईश्वर को जानने और उसे प्राप्त करने की लालसा दिखाई देने लगी थी। ईश्वर के बारे में जानने की उत्सुक्ता में कभी-कभी वे ऐसे प्रश्न पूछ बैठते थे कि इनके माता-पिता और कथावाचक पंडितजी तक चक्कर में पड़ जाते थे।


 


 


 स्वामी विवेकानंद शिक्षा –


भारत के अन्य मत पिता की तरह उनके माता पिता भी अपने पुत्र को पढ़ा लिखा कर कूटच अच्छा /बड़ा बनाना चाहते थे । इसी कारण 1871 में, 8 साल की आयु में ही स्वामी विवेकानंद को ईश्वर चन्द्र विद्यासागर मेट्रोपोलिटन इंस्टिट्यूट में दाखिल दिलवा दिया गया, 1877 में जब उनका परिवार रायपुर स्थापित हुआ तब तक नरेंद्र ने उसी स्कूल से शिक्षा ग्रहण किए। 1879 में कलकत्ता वापिस आ जाने के बाद प्रेसीडेंसी कॉलेज की एंट्रेंस परीक्षा में फर्स्ट डिवीज़न लाने वाले वे पहले विद्यार्थी बने।उन्होंने विभिन्न विषयो जैसे दर्शन शास्त्र, धर्म, इतिहास, सामाजिक विज्ञानं, कला और साहित्य की भी पढ़ाई की ।हिंदु धर्मग्रंथो भी बहुत जड़ पढ़ते थे जैसे वेद, उपनिषद, भगवत गीता, रामायण, महाभारत और पुराण। नरेंद्र भारतीय पारंपरिक संगीत में निपुण थे, और हमेशा शारीरिक योग, खेल और सभी गतिविधियों में भी भाग लिया करते थे। नरेंद्र ने पश्चिमी तर्क, पश्चिमी जीवन और यूरोपियन इतिहास की भी पढाई जनरल असेंबली इंस्टिट्यूट से कर रखी थी।


 


1881 में उन्होनें ललित कला की परीक्षा उत्तीर्ण की और वहीं 1884 में उन्होनें कला विषय से ग्रेजुएशन की डिग्री भी पूरी कर ली थी।इसके बाद उन्होनें 1884 में अपनी बीए की परीक्षा अच्छी अंकों के साथ उत्तीर्ण किए और फिर उसके बाद उन्होनें वकालत की पढ़ाई भी पूरी कर ली।1884 जो कि स्वामी विवेकानंद के लिए बेहद दुखद था क्योंकि इस समय उन्होनें अपने पिता को खो दिया था। पिता की मृत्यु के बाद उनके ऊपर अपने सभी 9 भाईयो-बहनों की जिम्मेदारी आ गई लेकिन वे बिल्कुल नहीं घबराए और अपने दृढ़संकल्प में अडिग रहकर विवेकानंद जी ने इस जिम्मेदारी को भी बखूबी निभाया।कुछ समय बाद 1889 में नरेन्द्र अपने पूरे परिवार के साथ वापस कोलकाता लौट गए। बचपन से ही विवेकानंद बेहतरीन बुद्धि के थे जिसकी वजह से उन्हें एक बार फिर स्कूल में एडमिशन मिला। दूरदर्शी समझ और तेजस्वी होने की वजह से उन्होनें 3 साल का कोर्स एक साल में ही पूरा कर लिया। कुछ लोग नरेंद्र को श्रुतिधरा (भयंकर स्मरण शक्ति वाला व्यक्ति) कहकर बुलाते थे।


 


 रामकृष्ण के साथ –


1881 में नरेंद्र पहली बार रामकृष्ण से मिले, जिन्होंने नरेंद्र के पिता की मृत्यु पश्च्यात मुख्य रूप से नरेंद्र पर आध्यात्मिक प्रकाश डाला। जब विलियम हस्ति जनरल असेंबली संस्था में विलियम वर्ड्सवर्थ की कविता “पर्यटन” पर भाषण दे रहे थे, तब नरेंद्र ने अपने आप को रामकृष्ण से परिचित करवाया था। जब वे कविता के एक शब्द “Trance” का मतलब समझा रहे थे, तब उन्होंने अपने विद्यार्थियों से कहा की वे इसका मतलब जानने के लिए दक्षिणेश्वर में स्थित रामकृष्ण से मिले। उनकी इस बात ने कई विद्यार्थियों को रामकृष्ण से मिलने प्रेरित किया, जिसमे नरेंद्र भी शामिल थे। वे व्यक्तिगत रूप से नवम्बर 1881 में मिले, लेकिन नरेंद्र उसे अपनी रामकृष्ण के साथ पहली मुलाकात नहीं मानते, और ना ही कभी किसी ने उस मुलाकात को नरेंद्र और रामकृष्ण की पहली मुलाकात के रूप में देखा। उस समय नरेंद्र अपनी आने वाली F.A.(ललित कला) परीक्षा की तयारी कर रहे थे।


 


जैसा आपको पाता है कि स्वामी विवेकानंद बचपन से ही बड़ी जिज्ञासु प्रवृत्ति के थे। इसी प्रवृत्ति के कारण उन्होनें एक बार महर्षि देवेन्द्र नाथ से सवाल पूछा था कि ‘क्या आपने ईश्वर को देखा है?’ नरेन्द्र के इस सवाल से महर्षि आश्चर्य में पड़ गए थे और उन्होनें इस जिज्ञासा को शांत करने के लिए विवेकानंद जी को रामकृष्ण परमहंस के पास जाने की सलाह दी जिसके बाद उन्होनें उनके अपना गुरु मान लिया और उन्हीं के बताए गए मार्ग पर आगे बढ़ते चले गए।


 


इस दौरान विवेकानंद जी रामकृष्ण परमहंस से इतने प्रभावित हुए कि उनके मन में अपने गुरु के प्रति कर्तव्यनिष्ठा और श्रद्धा बढ़ती चली गई। 1885 में रामकृष्ण परमहंस कैंसर से पीड़ित हो गए जिसके बाद विवेकानंद जी ने अपने गुरु की काफी सेवा भी की। इस तरह गुरु और शिष्य के बीच का रिश्ता मजबूत होता चला गया।


 


नरेंद्र और उनके अन्य साथियों ने रामकृष्ण के अंतिम दिनों में उनकी असीम सेवा की, और साथ ही नरेंद्र की आध्यात्मिक शिक्षा भी शुरू थी। कोस्सिपोरे में नरेंद्र ने निर्विकल्प समाधी का अनुभव लिया। नरेंद्र और उनके अन्य शिष्यों ने रामकृष्ण से भगवा पोशाक लिया, तपस्वी के समान उनकी आज्ञा का पालन करते रहे। रामकृष्ण ने अपने अंतिम दिनों में उन्हें सिखाया की मनुष्य की सेवा करना ही भगवान की सबसे बड़ी पूजा है। रामकृष्ण ने नरेंद्र को अपने मठवासियो का ध्यान रखने कहा, और कहा की वे नरेंद्र को एक गुरु की तरह देखना चाहते है। और रामकृष्ण 16 अगस्त 1886 को कोस्सिपोरे में सुबह के समय भगवान को प्राप्त हो गए।


 


जिसके बाद नरेन्द्र ने वराहनगर में रामकृष्ण संघ की स्थापना की। बाद में इसका नाम रामकृष्ण मठ अपने गुरु को समर्पित कर दिया गया।रामकृष्ण मठ की स्थापना के बाद नरेन्द्र नाथ ने ब्रह्मचर्य और त्याग का व्रत लिया और वे नरेन्द्र से स्वामी विवेकानन्द हो गए।यही से उनका नाम स्वामी विवेकानन्द पड़ा ।


 


गुरु के शिक्षा के अनुसार 25 साल की उम्र में ही स्वामी विवेकानन्द ने गेरुआ वस्त्र पहन लिए और इसके बाद वे पूरे भारत वर्ष की पैदल यात्रा के लिए निकल पड़े। अपनी पैदल यात्रा के दौरान अयोध्या, वाराणसी, आगरा, वृन्दावन, अलवर समेत कई जगहों पर पहुंचे।इस यात्रा के दौरान वे राजाओं के महल में भी रुके और गरीब लोगों की झोपड़ी में भी रुके। पैदल यात्रा के दौरान उन्हें अलग-अलग क्षेत्रों और उनसे संबंधित लोगों की जानकारी मिली। इस दौरान उन्हें जातिगत भेदभाव जैसी कुरोतियों का भी पता चला जिसे उन्होनें मिटाने की कोशिश भी की।23 दिसम्बर 1892 को विवेकानंद कन्याकुमारी पहुंचे जहां वह 3 दिनों तक एक गंभीर समाधि में रहे। यहां से वापस लौटकर वे राजस्थान के आबू रोड में अपने गुरुभाई स्वामी ब्रह्मानंद और स्वामी तुर्यानंद से मिले।जिसमें उन्होनें अपनी भारत यात्रा के दौरान हुई वेदना प्रकट की और कहा कि उन्होनें इस यात्रा में देश की गरीबी और लोगों के दुखों को जाना है और वे ये सब देखकर बेहद दुखी हैं। इसके बाद उन्होनें इन सब से मुक्ति के लिए अमेरिका जाने का फैसला लिया।विवेकानंद जी के अमेरिका यात्रा के बाद उन्होनें दुनिया में भारत के प्रति सोच में बड़ा बदलाव किया था।


 


मृत्यु –


विवेकानंद सुबह जल्दी उठे, और बेलूर मठ के पूजा घर में पूजा करने गये और बाद में 3 घंटो तक योग भी किया। उन्होंने छात्रो को शुक्ल-यजुर-वेद, संस्कृत और योग साधना के विषय में पढाया, बाद में अपने सहशिष्यों के साथ चर्चा की और रामकृष्ण मठ में वैदिक महाविद्यालय बनाने पर विचार विमर्श किये। शाम 7 बजे विवेकानंद अपने कमरे में गये, और अपने शिष्य को शांति भंग करने के लिए मना किया, और फिर रात्री के 9 बजे योगा करते समय उनकी मृत्यु हो गयी।4 जुलाई 1902 को उनकी मृत्यु हो गई ।उनके शिष्यों के अनुसार, उनकी मृत्यु का कारण उनके दिमाग में रक्तवाहिनी में दरार आने के कारन उन्हें महासमाधि प्राप्त होना है। उनके शिष्यों के अनुसार उनकी महासमाधि का कारण ब्रह्मरंधरा (योगा का एक प्रकार) था। उन्होंने अपनी भविष्यवाणी को सही साबित किया की वे 40 साल से ज्यादा नहीं जियेंगे। बेलूर की गंगा नदी में उनके शव को चन्दन की लकडियो से अग्नि दी गयी।

रतन टाटा

 




भारतीय उद्योगपति और टाटा संस के सेवामुक्त चेयरमैन रतन टाटा भारत के प्रमुख उद्योगपतियों में से एक हैं। रतन टाटा हजारों लाखों लोगों के लिए आदर्श है इन्होंने अपने जीवन में कड़े संघर्ष मेहनत की बदौलत यह मुकाम हासिल किया है। 1991 में रतन टाटा को टाटा ग्रुप के अध्यक्ष बनाए गए और 28 दिसंबर 2012 में रतन टाटा ने टाटा ग्रुप की अध्यक्षता से इस्तीफा दे दिया परन्तु वे अभी भी टाटा समूह के चैरिटेबल ट्रस्ट के अध्यक्ष बने हुए हैं। रतन टाटा, टाटा ग्रुप के अलावा सभी प्रमुख कम्पनियों जैसे टाटा स्टील, टाटा मोटर्स, टाटा पावर, टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज, टाटा टी, टाटा केमिकल्स, इंडियन होटल्स और टाटा टेलीसर्विसेज के अध्यक्ष भी रहे हैं। रतन टाटा ने अपनी अगुवाई में टाटा ग्रुप को नई बुलंदियों पर पहुंचाने का काम किया है।


 


रतन टाटा का शुरुआती जीवन –


28 दिसंबर 1937 को मुंबई शहर में रतन टाटा का जन्म हुआ था। 1940 के दशक में जब रतन टाटा के माता-पिता (सोनू टाटा और नवल टाटा) एक दूसरे से अलग हुए उस समय रतन टाटा 10 साल के थे और उस वक्त उनका छोटा भाई जिमी सिर्फ 7 साल का था। इसके बाद इनकी दादी नवजबाई टाटा ने इन दोनों भाइयों का पालन पोषण किया था। रतन की प्रारंभिक शिक्षा मुंबई के कैंपियन स्कूल से हुई और माध्यमिक शिक्षा कैथेड्रल एंड जॉन कॉनन स्कूल से। इसके बाद उन्होंने अपना बी एस वास्तुकला में स्ट्रक्चरल इंजीनियरिंग के साथ कॉर्नेल विश्वविद्यालय से 1962 में पूरा किया। तत्पश्चात उन्होंने हार्वर्ड बिजनेस स्कूल से सन 1975 में एडवांस्ड मैनेजमेंट प्रोग्राम पूरा किया।


 


रतन टाटा का कैरियर –


भारत लौटने से पहले रतन टाटा लॉस एंजिल्स, कैलिफोर्निया में जोन्स और एमोंस में कुछ समय के लिए काम किया। रतन टाटा ने अपने करियर की शुरुआत टाटा ग्रुप के साथ 1961 में किया। रतन टाटा, एक चीज कहते थे मैं अलग ढंग से करना चाहता वो है और अधिक आउटगोइंग होना। उन्होंने टाटा ग्रुप मे शुरुआती दिनों में उन्होंने टाटा स्टील के शॉप फ्लोर पर कार्य किया। उसके बाद 1971 में इन्हें राष्ट्रीय रेडियो और इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनी (नेल्को) में प्रभारी निदेशक नियुक्त किया गया। इसके बाद 1981 में रतन टाटा, टाटा इंडस्ट्रीज के अध्यक्ष बने और कुछ साल बाद जेआरडी टाटा ने अपने अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने का फैसला लिया और रतन टाटा को अपना उत्तराधिकारी 1991 में घोषित कर दिया। रतन टाटा की अध्यक्षता में टाटा मोटर्स ने अपनी पहली भारतीय कार टाटा इंडिका लॉन्च की जो काफी सफल भी रही। उन्होंने अपनी प्रतिभा के दम पर टाटा ग्रुप को इतनी उचाइयो तक पहुचाया है जिसे हम अभी वर्तमान में देख रहे है |


 


 टाटा समुह जिसकी स्थापना जमशेदजी टाटा ने की और उनके परिवार की पीढियों ने इसका विस्तार किया और इसे दृढ़ बनाया। 26 मार्च 2008 को टाटा टी ने टेटली, टाटा मोटर्स ने ‘जैगुआर लैंड रोवर’ और टाटा स्टील ने ‘कोरस’ का अधिग्रहण कर भारतीय बाजार में तहलका मचा दिया। दुनिया की सबसे सस्ती कार बनाने का सपना भी रतन टाटा का ही था। रतन टाटा का सपना था कि 1 लाख रु की लागत की दुनिया की सबसे सस्ती कार बनायी जाए। नई दिल्ली में ऑटो एक्सपो में 10 जनवरी, २००८ को इस कार का उदघाटन कर के उन्होंने अपने सपने को पूर्ण किया। हालाँकि बाद में इन्होंने 28 दिसंबर 2012 को टाटा समूह के सभी कार्यकारी जिम्मेदारियों से सेवानिवृत्त हो गए थे और उनकी जगह 44 वर्षीय साइरस मिस्त्री को दी गई। टाटा समूह से अपने कार्यों से निवृत होने वाले रतन टाटा ने हाल ही में ईकॉमर्स कंपनी स्नैपडील, अर्बन लैडर और चाइनीज़ मोबाइल कंपनी जिओमी में भी निवेश किया है। अभी रतन टाटा प्रधानमंत्री व्यापार और उद्योग परिषद और राष्ट्रीय विनिर्माण प्रतिस्पर्धात्मकता परिषद के अध्यक्ष के तौर पर नियुक्त हैं।


 


पुरस्कार :


 


• 2006साइंस की मानद डॉक्टरइंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी मद्रास


• 2005साइंस की मानद डॉक्टरवारविक विश्वविद्यालय


• 2005अंतर्राष्ट्रीय गणमान्य अचीवमेंट अवार्ड


• 2004प्रौद्योगिकी के मानद डॉक्टर एशियन इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी


• 2004उरुग्वे के ओरिएंटल गणराज्य की पदकउरुग्वे की सरकार


• 2001बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन के मानद डॉक्टरओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी


• 2008मानद फैलोशिपइंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी संस्थान


• 2008मानद नागरिक पुरस्कारसिंगापुर सरकार


• 2008साइंस की मानद डॉक्टरइंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी खड़गपुर


• 2008साइंस की मानद डॉक्टरइंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी मुंबई


• 2008लॉ की मानद डॉक्टरकैम्ब्रिज विश्वविद्यालय


• 2008लीडरशिप अवार्डलीडरशिप अवार्ड


• 2007परोपकार की कार्नेगी पदक अंतर्राष्ट्रीय शांति के लिए कार्नेगी एंडोमेंट


• 2012मानद फैलोइंजीनियरिंग की रॉयल अकादमी


• 2010इस साल के बिजनेस लीडर एशियाई पुरस्कार


• 2014कानून की मानद डॉक्टरन्यूयॉर्क विश्वविद्यालय, कनाडा


• 2015ऑटोमोटिव इंजीनियरिंग की मानद डॉक्टर क्लेमसन विश्वविद्यालय

धीरूभाई अंबानी

 



आज के समय मे कौन अमीर नहीं होना चाहता है , जब हम आमिल की बात कर ही रहे है तो उनमे एक नाम आता है धीरु भाई अंबानी का । ऐसा नहीं है की वो हमेशा से आमिर थे उन्होंने मेहनत कर के ये मुकाम हासिल किया है। यह वह इंसान है जो हाईस्कूल की शिक्षा भी पूरी नहीं कर पाया। वह इतने गरीब परिवार से थे कि खर्चा चलाने के लिए उसे अपनी किशोरावस्था से ही नाश्ते की रेहड़ी लगाने से लेकर पेट्रोल पंप पर तेल भरने तक का काम किया। ऐसे लड़के ने जब एक वृद्ध के तौर पर दुनिया को अलविदा कहा तो उसकी सम्पति का मूल्य 62 हजार करोड़ रूपये से भी ज्यादा था। अगर आप अब भी इस शख्सशियत को नहीं पहचान पाएं तो हम बात कर रहे हैं, धीरूभाई अंबानी की। एक ऐसा सफल चेहरा जिसने हरेक गरीब को उम्मीद दी कि सफल होने के लिए पैसा नहीं नियत चाहिए। सफलता उन्हीं को मिलती है जो उसके लिए जोखिम उठाते हैं। धीरूभाई ने बार — बार साबित किया कि जोखिम लेना व्यवसाय का नहीं आगे बढ़ने का मंत्र है।


 


शुरूआती जीवन –


गुजरात के जूनागढ़ के पास एक छोटे से गांव जिसका नाम चोरवाड़ है के एक साधारण शिक्षक के घर में धीरूबाई अंबानी का जन्म 28 दिसंबर, साल 1932 में हुआ था।उनकी माता का नाम जमनाबेन था जो एक घरेलू महिला थी और उनके पिता गोर्धनभाई अंबानी एक साधारण शिक्षक थे, जिनके लिए अपने इतने बड़े परिवार का लालन-पालन करना काफी मुस्किल था।वहीं उनकी नौकरी से घर खर्च के लिए भी पैसे पूरे नहीं पड़ते थे और ऐसे स्थिति मे चार और भाई- बहनों के बीच धीरूभाई का शिक्षा ग्रहण करना काफी मुश्किल था इसी कारण धीरूभाई अंबानी को हाईस्कूल की अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी और अपने घर की मालीय हालात को देखते हुए परिवार का गुजर-बसर करने के लिए अपने पिता के साथ भजिया इत्यादि बेचने जैसे छोटे-मोटे काम करने लगे।


 


यह उदाहरण कि हरेक सफलता के पीछे ढेरों असफलताएं छुपी हुई होती है, धीरूभाई अंबानी पर एकदम सटीक खरी उतरती हैं। धीरुभाई अंबानी ने अपने घर की आर्थिक हालत को देखते हुए सबसे पहले उन्होंने फल और नाश्ता बेचने का काम शुरु किया, लेकिन इसमें उन्हे कुछ खास फायदा नहीं हुआ।उसके बाद उन्होंने गांव के पास ही एक धार्मिक और पर्यटक स्थल में पकौड़े बेचने का काम शुरु कर दिया, लेकिन यह काम वहां आने-जाने वाले पर्यटकों पर पूरी तरह निर्भर था, जो कि साल में कुछ समय के लिए ही चलता था और बाकी समय बास गाव के लोग ही आते थे।जिससे की धीरूभाई जी को अपना यह काम मजबूरन बंद करना पड़ा। जब उन्हेकिसी भी काम में सफलता नहीं मिली तो उन्होंने अपने पिता की सलाह से उन्होंने फिर नौकरी ज्वॉइन कर ली।


 


धीरू भाई अंबानी के बड़े रमणीक भाई यमन में नौकरी किया करते थे। उनकी मदद से धीरू भाई को भी यमन जाने का मौका मिला। उन्होंने वहां 300 रुपये प्रति माह के वेतन पर पेट्रोल पंप पर काम किया। मात्र दो वर्ष में ही अपनी योग्यता की वजह से प्रबंधक के पद तक पहुंच गए। इस नौकरी के दौरान भी धीरू भाई का मन इसमें कम और व्यापार में करने के मौकों की तरफ ज्यादा रहा करता था । धीरू भाई ने उस हरेक संभावना पर इस समय में विचार किया कि किस तरह वे सफल बिजनेस मैन बन सकते हैं। एक घटना व्यापार के प्रति जुनून को बयां करती है- धीरूभाई अंबानी जब एक कंपनी में काम कर रहे थे तब वहां काम करने वाला कर्मियों को चाय महज 25 पैसे में मिलती थी, लेकिन धीरू भाई पास के एक बड़े होटल में चाय पीने जाते थे, जहां चाय के लिये 1 रुपया चुकाना पड़ता था। उनसे जब इसका कारण पूछा गया तो उन्होंने बताया कि उसे बड़े होटल में बड़े-बड़े व्यापारी आते हैं और बिजनेस के बारे में बातें करते हैं। उन्हें ही सुनने जाता हूं ताकि व्यापार की बारीकियों को समझ सकूं। इस बात से पता चलता है कि धीरूभाई अंबानी को बिजनेस का कितना जूनून था।


 


1950 के दशक के शुरुआती सालों में धीरुभाई अंबानी यमन से भारत लौट आये और अपने चचेरे भाई चम्पकलाल दमानी (जिनके साथ वो यमन में रहते थे) के साथ मिलकर पॉलिएस्टर धागे और मसालों के आयात-निर्यात का व्यापार प्रारंभ किया। रिलायंस कमर्शियल कारपोरेशन की शुरुआत मस्जिद बन्दर के नरसिम्हा स्ट्रीट पर एक छोटे से कार्यालय के साथ हुई। इस दौरान अम्बानी और उनका परिवार मुंबई के भुलेस्वर स्थित ‘जय हिन्द एस्टेट’ में एक छोटे से अपार्टमेंट में रहता था।


 


वर्ष 1965 में धीरुभाई अम्बानी और चम्पकलाल दमानी की व्यावसायिक साझेदारी समाप्त हो गयी। दोनों के स्वभाव और व्यापार करने के तरीके बिलकुल अलग थे इसलिए ये साझेदारी ज्यादा लम्बी नहीं चल पायी। एक ओर जहाँ पर दमानी एक सतर्क व्यापारी थे, वहीं धीरुभाई को जोखिम उठानेवाला माना जाता था।


 


इन्हीं सब संघर्षों के बीच उनका विवाह कोकिलाबेन से हुआ जिनसे उन्हें दो बेटे मुकेश और अनिल तथा दो बेटियां दीप्ती और नीना हुईं। उन्होंने इसके बाद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और रिलायंस कपड़े के साथ ही पेट्रोलियम और दूरसंचार जैसी कंपनियों के साथ भारत की सबसे बड़ी कंपनी बन गई। इन सबके बीच धीरूभाई अंबानी पर सरकार की नीतियों को प्रभावित करने और नीतियों की कमियों से लाभ कमाने के आरोप भी लगते रहे। उनके और नुस्ली वाडिया के बीच होने वाले बिजनेस घमासान पर भी बहुत कुछ लिखा गया। उनके जीवन से प्रेरित एक फिल्म गुरू बनाई गई जिसमें अभिषेक बच्चन ने उनकी भूमिका का निर्वाह किया। लगातार बढ़ते बिजनेस के बीच उनका स्वास्थ्य खराब हुआ और 6 जुलाई 2002 को उनकी मृत्यु हो गई। मृत्यु के बाद उनके काम को बड़े बेटे मुकेश अंबानी ने संभाला।

शिव खेड़ा

 


जब हमारा समए खराब रहता है और सभी चीजे परिस्थिति के विपरीत होने लगती है जैसा की अभी का समय पूरे विस्व के लिए बहुत कठिन है । जब ये परिस्थिति हमारी जिंदगी मे होती है तो हम पूरी तरह टूट जाते है और हमारे अंदर निराशा घर कर जाती है। मगर हमे इस परिस्थितियों से डरना नहीं चाहिया बल्कि डट कर मुकाबला करना चाहिए और सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित करना चाहिए। अगर आप इस परिस्थिति को जीत जाते है तभी आप एक सफल इंसान के रूप मे अपनी पहचान बना सकते है। 

आज हम ऐसे ही एक इंसान के बारे मे बतयएंगे जो किसी भी कठिनसे कठिन परिस्थिति से टूटे नहीं बल्कि डट कर मुकाबला किया और उसे हराया भी। जी हाँ ऐसे ही व्यक्तियों में से एक हैं शिव खेड़ा। संघर्षों से जूझते हुए शिव खेड़ा ने अपना वह मुकाम बनाया है जहाँ से वह औरों के जीवन की निराशा को आशा में परिवर्तित करने का भागीरथ प्रयास कर रहे हैं। आज वो दुनिया के उन प्रभावशाली वक्ताओं, लेखकों और चिंतकों में से एक हैं जिन्होंने लाखों लोगों की जिन्दगी को अपने विचारों से सकारात्मक दिशा में मोड़ने में मदद की है।उन्होंने बहुत सारी प्रेरणादायी पुस्तकें लिखीं हैं।जब आप उस किताब को पढ़ेंगे आपका जीवन पूर्ण आत्मविश्वास से भर उठेगा। लाखों लोग रोजाना इंटरनेट पर शिव खेड़ा के जीवन और उनके प्रेरक विचारों की जिज्ञासा के लिए उनसे संबंधित सामग्री की खोज करते हैं और अगर हम बात करे तो वो सोशल साईट ट्विटर पर भी बहुत प्रसिद्ध है और उनको चाहने वालों की संख्या बहुत ही ज्यादा है। 

 

प्रारंभिक जीवन –

झारखण्ड राज्य के धनबाद में 23 अगस्त 1961 को एक व्यवसायी परिवार में शिव खेरा जी का जन्म हुआ था। उनके पिता का कोयला खादान के जुड़ा व्यवसाय था और माँ एक गृहणी थीं। बाद के दिनों में जब कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया, तब इस परिवार को भारी मुसीबतों के दौर से गुजरना पड़ा था। इसी दौरान शिव खेड़ा ने एक स्थानीय सरकारी स्कूल से अपनी माध्यमिक शिक्षा पूरी की। स्कूल के दिनों में वह एक औसत दर्जे के विद्यार्थी थे। 10वीं की परीक्षा में एक बार वह फेल भी हो गए थे. परन्तु इसके बाद उनके जीवन में एक बड़ा परिवर्तन आया और उन्होंने एक सकारात्मक सोच के अपने जीवन की चुनौती को स्वीकार किया, जिसका परिणाम उन्हें उच्चतर माध्यमिक परीक्षा में मिला। इस परीक्षा में वे प्रथम श्रेणी में उतीर्ण हुए। 

 

स्कूल के बाद उन्होंने बिहार के एक कॉलेज से स्नातक की डिग्री हासिल की। शिव खेड़ा के चिंतन का पंचलाइन है – ‘जो विजेता हैं वह कुछ अलग नहीं करते हैं बल्कि उनका करने का तरीका अलग होता है।’ शिव खेड़ा को अपने जीवन के प्रारंभिक दौर में कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। उन्होंने कनाडा में कार धोने के काम के द्वारा अपना कैरियर शुरू किया। उनका काम कारों को ठीक से धोना था। इस नौकरी के बाद, उन्होंने बीमा कंपनी के रूप में अपनी किस्मत आजमायी, उन्होंने जीवन बीमा कंपनी में काम किया और ग्राहकों को बीमा पॉलिसियां बेची, लेकिन वह इस क्षेत्र में भी सफलता हासिल करने में नाकामयाव हो गये। शिव खेड़ा के जीवन की कहानी कठिनाइयों से भरी हुई है और उन्होंने अपने जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए बहुत संघर्ष किया।

 

 शिव खेड़ा का पेशेवर जीवन –

 

इस कंपनी की शाखाएं भारत सहित दुनिया के कई देशों में फैली हुई है। शिव खेड़ा ने प्रेरणा और सकारात्मक तथ्यों से भरे अपने चिंतन को लेखन के माध्यम से लाखों लोगों तक पहुंचाया है। उन्होंने 16 पुस्तकें लिखीं हैं जो दुनियाभर में कई भाषाओँ में प्रकाशित हुई हैं। वर्ष 1998 में शिव खेड़ा की पहली पुस्तक प्रकाशित हुई थी जिसका नाम था ‘यू कैन वीन’ (You Can Win)। इस पुस्तक ने बिक्री का एक नया कीर्तिमान स्थापित किया था। हिंदी में ‘जीत आपकी’ टाइटल के साथ शिव खेड़ा की यह पुस्तक विश्व की 16 विभिन्न भाषाओँ में प्रकाशित हुई थी। अभी तक के उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार ‘यू कैन वीन’ की 30 लाख से अधिक प्रतियाँ बिक चुकी हैं। इस पुस्तक के लिए शिव खेड़ा कई पुरस्कारों से सम्मानित भी हो चुके हैं। शिव खेड़ा की अन्य प्रकाशित पुस्तकों में ‘लिविंग विथ ऑनर’ ( हिंदी में ‘सम्मान से जियें’), ‘फ्रीडम इज नॉट फ्री’ (हिंदी में ‘आज़ादी से जियें’), ‘यू कैन सेल’ (हिंदी में ‘बेचना सीखो और सफल बनो’) का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। 

 

1998 में शिव खेडा ने अपनी पहली किताब पब्लिश की थी “जीत आपकी” “You can win”. The Hindu अख़बार के अनुसार शिव खेडा की किताब “You can win” जून 2017 तक 35 million copies बिक चुकी है | शिव खेडा दुनिया में अलग अलग देशो में जा के सेमिनार करते है और सभी को सफलता के तरफ motivate करते है | शिव खेडा को अलग अलग companies से Seminar के लिए invitation आता है | शिव खेडा कहते है कि जब भी कोई उनके सेमिनार में आ के अपने जीवन में बदलाव महसूस करता है तो इन सब से उनको शक्ति मिलती है | शिव खेडा अपने सेमिनार में Self Improvement को जोर देते है और हमेशा खुदी में ज्यादा सुधार करने की राय देते है | शिव खेडा अपने सेमिनार में Parents और Teachers को बहुत महत्व देते है और कहते है, सिर्फ Parents और Teachers ही हमारी गलतियों को ठीक करते है बाकी सारी दुनिया हमें हमारी गलतियों की सज़ा देती है | हाल ही में शिव खेडा ने कहा है कि वे Parenthood पे एक किताब लिख रहे है|

 

शिव खेरा ने अपनी सकरात्मक सोच से कई किताबे लिखी है और उनकी ज्यादातर किताबो को लोगो ने सराहा है | शिव खेडा ने कई companies में जा के वहा के employees को अपनी सकरात्मक सोच से motivate किया है |  शिव खेड़ा बहुत ही खूब motivational speaker है | उनकी लिखी हुई किताबो से भी उनके सकरात्मक सोच का पता चलता है | 

 

 शिव खेडा के अनमोल विचार

1.    “अच्छाई हमेशा सिचनी पड़ती है”

2.     “कौशल से ज्यादा इन्सान की इच्छा शक्ति उसे सफलता तक ले जाती है”

3.     “हमें व्यापारिक समस्याएं नहीं है, व्यवहारिक समस्याए है”

4.    जीतने वाले कुछ अलग चीजे नहीं करते,वो चीजो को अलग तरह से करते है।

5.    जीतने वाले लोग अपना लाभ देखते है वही हारने वाले अपना दर्द।

6.    कठिन परिस्थितयो में कुछ लोग टूट जाते है तो कुछ लोग रिकॉर्ड बना देते है।

7.    चरित्र का निर्माण तब नहीं होता जब बच्चा पैदा होता है,बल्कि यह तो बच्चा पैदा होने के सौ साल पहले से शुरू हो जाता है।

8.    अगर आपको लगता की आप कर सकते हो तो आप वाकई में कर सकते हो और अगर आपको लगता है कि आप नहीं कर सकते तो आप वाकई में नहीं कर सकते, आप किसी भी तरह से सोचो…आप सही है।

9.    अच्छे लीडर, और अच्छे लीडर बनाने की सोचते है,वही बुरे लीडर फोलोवर बनाने की सोचते है।

10.    कभी भी बुरे लोगो की सक्रियता समाज को बर्बाद नहीं करती बल्कि अच्छे लोगो की निष्क्रियता हमेशा समाज को बर्बाद करती है।

मदर टेरेसा


जब भी हमारे देश मे महान लोगों की बात की जाएगी तब उन्मेसे एक नाम जरूर लिया जाएगा | मदर टेरेसा, जो अपना तमाम जीवन परोपकार और दूसरों की सेवा में अर्पित कर दी | उन्होंने संसार के तमाम दीन-दरिद्र, बीमार, असहाय और गरीबों के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया |

 

प्रारंभिक जीवन

मदर टेरेसा का असली नाम ‘अगनेस गोंझा बोयाजिजू’था। गोंझा का अर्थ अलबेनियन भाषा में फूल की कली होता है। उनका जन्म 26 अगस्त, 1910 को एक अल्बेनीयाई परिवार में हुआ जो स्कॉप्जे (अब मसेदोनिया में) है | उनके पिता का नाम निकोला बोयाजू था जो की पेसे से एक साधारण व्यवसायी थे। और उनके माता का नाम द्राना बोयाजू था |

 

उनके पांच भाई-बहने थी जिनमे वो सबसे छोटी थी | इनके जन्म के समय इनकी बड़ी बहन की उम्र 7 साल और भाई की उम्र 2 साल थी, बाकी दो बच्चे बचपन में ही गुजर गए थे। जब वो आठ साल की हुए तो उनके पिता का निधन हो गया जिसके बाद बच्चों का लालन पोषण और पूरे परिवार की सभी जीमेदारी उनके माता के ऊपर आ गयी।

 

समाजसेवीका का शुरुवात

जब वो 18 साल की हुए उन्होंने ‘सिस्टर्स ऑफ़ लोरेटो’ में शामिल होने का फैसला लिया जिसके लिए उन्हे अंग्रेजी भाषा का ज्ञान होना जरुरी था जिसे पढ़ने के लिए वह आयरलैंड चली गयीं | 6 जनवरी, 1929 को वह आयरलैंड से कोलकाता ‘लोरेटो कॉन्वेंट पंहुचीं। कुछ समय बाद 1944 मे सेंट मैरी स्कूल की प्रधानाचार्या बनी |

 

मदर टेरसा रोमन कैथोलिक नन थीं। उन्होंने ‘निर्मल हृदय’ और ‘निर्मला शिशु भवन’ नामक एक आश्रम खोला जहां वो गरीब और असाध्य बीमारी से पीड़ित रोगियों की खुद से सेवा करती थी | 1946 मे उन्होंने अपना सारा जीवन बीमारों, असहायों, लाचारों और गरीबों के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने 1948 मे अपने स्वेच्छा से भारतीय नागरिकता भी ले ली|

 

आजीवन सेवा का संकल्प

‘मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी’ की स्थापना की अनुमति उन्हे वैटिकन से 7 अक्टूबर 1950 को मिल गई | इस संस्था का मूल उद्देश्य बीमार और समाज से बेघर गरीब लोगों की सहायता करनी थी| उनकी मान्यता है कि 'प्यार की भूख रोटी की भूख से कहीं बड़ी है।' इन्ही सब सेवा भाव से उन्हे कई प्रकार के पुरस्कार और सम्मानों से सम्मनित किया गया था।

 

पुरस्कार व सम्मान

१९३१ में उन्हें पोपजान तेइसवें का धर्म की प्रगति और शांति पुरस्कार के टेम्पेलटन फाउण्डेशन पुरस्कार प्रदान किय गया। 1962 में भारत सरकार द्वारा उन्हे पद्मश्री से सम्मनित किया गया | उन्हे 1979 में नोबेल शांति पुरस्कार , 1980 में भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न और 1985 में अमेरिका ने उन्हें मेडल आफ़ फ्रीडम से नवाजा गया | इंसभी पुरस्कार क अलावा इन्हे और भी की पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुआ है | इन्होंने नोबेल पुरस्कार की 192,000 डॉलर की धन-राशि गरीबों को बाँट दी थी।

 

अंतिम समय

अच्छे काम करने के बावजूद मदर टेरेसा कई तरह के आरोप लगाए गए थे जिससे वो मानसिक रूप से परेसान रह रही थी और उम्र के कारण की शारीरिक बीमारी भी हो गई थी | पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में उनकी बहुत निंदा हुई| उनपे आरोप लगा की वो ग़रीबों की सेवा करने के बदले उनका धर्म बदलवाकर ईसाई बनावाते थे | उन्हें ईसाई धर्म का प्रचारक भी मन जाने लगा था| जिससे वो बहुत ही जड़ परेशान रहती थी|

 

उन्हें पहली बार दिल का दौरा 1983 73 वर्ष की आयु में पॉप जॉन पॉल द्वितीय से मिलने के दौरान पड़ा। 1989 में उन्हें दूसरा दिल का दौरा आया।  उनकी बढती उम्र के साथ-साथ उनका स्वास्थ्य भी लगातार बिगड़ता गया।

 

13 मार्च 1997 को उन्होंने ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ के मुखिया का पद छोड़ दिया और 5 सितंबर 1997 को उनकी निधन हो गई। 

 

उनकी निधन के समय तक ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ में चार हजार(4,000) सिस्टर और तीन सौ(300) अन्य सहयोगी संस्थाएं काम कर रही थीं, जो विश्व के 123 देशों में समाजसेवा में जूरी थीं। जिस हृदय के साथ उन्होंने दीन-दुखियों की सेवा की उसे देखते हुए ‘पोप जॉन पाल द्वितीय’ ने 19 अक्टूबर 2003 को रोम में मदर टेरेसा को 'धन्य' घोषित किया था। मदर टेरेसा आज हम सभी के बीच नहीं हैं, पर उनकी मिशनरी आज भी समाज सेवा के कार्यों में लगी हुई है और आगे भी लगी रहेगी।

अमिताभ बच्चन

 


अक्टूबर 11, 1942 को उतरप्रदेश के जिले इलाहबाद के हिन्दू 

परिवार में अमिताभ बच्चन का जन्म हुआ | आरंभ में बच्चन का नाम इंकलाब रखा गया था जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान प्रयोग में किए गए प्रेरित शब्द ‘इंकलाब जिंदाबाद’ से लिया गया था। लेकिन बाद में इनका फिर से अमिताभ नाम रख दिया गया जिसका अर्थ है, "ऐसा प्रकाश जो कभी नहीं बुझेगा"। उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद, में जन्मे अमिताभ बच्चन के पिता, डॉ॰ हरिवंश राय बच्चन एक प्रसिद्ध हिन्दी कवि थे, जबकि उनकी माता तेजी बच्चन कराची से संबंध रखती थीं। एक दिलचस्प बात और भी है इनका अंतिम नाम श्रीवास्तव है फिर भी इनके पिता ने इस उपनाम को अपने कृतियों को प्रकाशित करने वाले बच्चन नाम से प्रकशित किया। अब यह उनके परिवार के समस्त सदस्यों के साथ यह नाम जुड़ गया।


 


शिक्षा


अमिताभ बच्चन बॉलीवुड के उन अभिनेताओं में भी है जिन्होंने अच्छी खासी पढाई करी है उन्होंने दो बार एम. ए. की उपाधि ग्रहण की है। इन्होंने इलाहाबाद के ज्ञान प्रबोधिनी से मास्टर ऑफ आर्ट्स (स्नातकोत्तर) तथा उसके शेरवूड कॉलेज जो नैनीताल में है से आर्ट में अपनी ग्रेजुएशन की हुई है| अमिताभ बाद में विज्ञानं में स्नातक स्तर की पढ़ाई करने के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज चले गए| इसके बाद इलाहाबाद से MA ज्ञान प्रबोधिनी कॉलेज से की।


 


करियर और फिल्म इंडस्ट्री


शुरू में इन्हें फिल्मो की दुनिया में आने के लिए किसी भी तरह की दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ा | फ़िल्मों में अपने कैरियर की शुरूआत ख्वाज़ा अहमद अब्बास के निर्देशन में बनी फिल्म सात हिन्दुस्तानी के सात कलाकारों में एक कलाकार के रूप में की| अपनी पहली फ़िल्म के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार में सर्वश्रेष्ठ नवागंतुक का पुरूस्कार जीता।


फिल्मी दुनिया मे आने से पहले अमिताभ एक शिपिंग कम्पनी में नौकरी करते थे उसके बाद माता जी का सहयोग मिलने पे वो फिल्मी दुनिया मे आए | अमिताभ ने अपने टैलेंट और अभिनय के दम पर इंडस्ट्री में बादशाह का मुकाम हासिल किया है|


मशहूर लेखक-निर्देशक ख्वाजा अहमद अब्बास ने उन्हें अपनी फिल्म ‘सात हिंदुस्तानी’ (1969) में ब्रेक दिया। इसके बाद उन्हें ‘आनंद’ (1970) और ‘नमक हरम’ (1973) में उस दौर के सुपर स्टार राजेश खन्ना के साथ उत्कृष्ट अभिनय करने के लिए पहचाने गए, लेकिन ‘जंजीर’ (1973)फिल्म से उन्हें ‘एंग्री यंग मैन’ की ऐतिहासिक इमेज मिली। ‘शक्ति’ (1982) में दिलीप कुमार एवं ‘आनंद’ में राजेश खन्ना के साथ अपनी श्रेष्ठता सिध्द कर उन्होंने हिंदी सिनेमा पर अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया।


 


स्टार बनने का सफर


1973 में आई प्रकाश मेहरा की एक फिल्म अमिताभ बच्चन की जिन्दगी में स्टार बनने के लिए महत्वपूर्ण मोड़ लाया जब इसमे इन्हें एक इंस्पेक्टर का रोल मिला जिसमे “ इंस्पेक्टर खन्ना “इनके किरदार का नाम था और उस किरदार में अमिताभ एकदम अलग तरह के रोल में थे और साथ ही इनकी भारी आवाज जिसके लिए इन्हें आल इंडिया रेडियो मे RJ के पद के लिए निकाल दिया गया था वही इनकी खासियत भी बनी ऐसे में जनता के लिए अमिताभ का यह रूप बहुत पसंद आने वाला था और इसके बाद “ अंगरी यंगमैन “और बॉलीवुड के एक्शन हीरो की रूप में एक नई छवि अमिताभ की जनता के बीच में बनी जिसने इन्हें बेहद लोकप्रिय बना दिया |3 जून 1973 अमिताभ ने जय भादुड़ी से बंगाली संस्कार मे शादी किया |


 


लाइफ चेंजिंग इवेंट्स


कई सारी कामयाब फिल्मो की वजह से 1976 से लेकर 1984 तक बहुत सारे पुरस्कार भी मिले मिले जिसमे से एक उनकी बेहद कामयाब शोले और दीवार जैसी फिल्म भी है,शोले आज भी बॉलीवुड की एक सबसे कामयाब फिल्मों मे जाना जाता है और जाना जाता रहेगा| सबसे अधिक फिल्मफेयर अवार्ड्स पाने वाले अभिनेताओ और फिल्म इंडस्ट्री के सबसे कामयाब और पहचान वाले अभिनेता मे से एक नाम अमिताभ बच्चन का भी आता है | तीन राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और बारह सर्वश्रेष्ठ फिल्म अभिनेता के फिल्मफेयर पुरस्कार अमिताभ के नाम है जो की एक बहुत ही बारी बात है |


 


1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद अपने दोस्त राजीव गाँधी की सलाह पर वो राजनीती में उतरे और इलाहाबाद के राजनीती के चाणक्य कहे जाने वाले हेमवती नंदन बहुगुणा को हरा कर 1984-1987 तक संसद के निर्वाचित सदस्य के रूप में भी इन्होने अपनी भूमिका दी है | मगर कुछ ही समय बाद इन्होंने राजनीति छोर दिया |


 


बच्चन अपनी जबरदस्त आवाज़ के लिए जाने जाते हैं। वे बहुत से कार्यक्रमों में एक वक्ता, पार्श्वगायक और प्रस्तोता रह चुके हैं साथ ही एक अच्छे विज्ञापन करता के रूप में भी अमिताभ की पहचान बनी हुई है| उम्र के इस दौर में वो 73 साल के हुए चुके थे तब ‘कौन बनेगा करोडपति ‘ शो में इन्होने होस्ट के तौर पर काम किया| अमिताभ ने 12 से अधिक फिल्मो में डबल रोल और एक फिल्म “ महान “ मे तो उन्होंने triple role भी किया है। उनके इस खास मुकाम के कारण फ़्रांस के एक शहर द्युविले की मानद नागरिकता भी है | जो की इस दुनिया मे उस देश के अलावा सिर्फ तीन को ही यह नागरिकता मिली है |


 


लव लाइफ और अफेयर्स


1978 में अमिताभ और रेखा की बीच बढती नजदीकियों को लेकर देशभर के अख़बारों में भी यह सुर्खियाँ बनती जा रही थी बल्कि दोनों के घर में बहुत हंगामा हुआ, इस बारे में सुना गया था कि रेखा दिल ही दिल में अमिताभ बच्चन को बहुत पसंद करती थी मगर कभी किसी ने भी कुछ जाहीर नहीं किया | जिसके कारण बाद मे अमिताभ की शादी जया जी से हुई|


 


बच्चों और परिवार


अभिषेक बच्चन और श्वेता नंदा बच्चन अमिताभ बच्चन की दो संताने है, जिसमें से अभिषेक बच्चन खुद भी अभिनेता है और अभिषेक का विवाह ऐश्वर्या राय के साथ हुआ है जो बेहद खूबसूरत अभिनेत्री रह चुकी है और वो विश्व सुंदरी भी रह चुकी है | करोड़ो दिलो को धड़कन रह चुकी ऐश्वर्या को अपने हमसफ़र के रूप में पाने वाले अभिषेक बच्चन बेइंतिहा लकी है , मगर उनका लक एक्टिंग की दुनिया मे कुछ ठीक नहीं है | 


 


सामाजिक रूप से सक्रिय


अपने फेंस के साथ जुड़े रहने के लिए सोशल साइट्स जैसे ब्लॉग और फेसबुक और ट्विटर पर भी काफी सक्रिय रहते है। शिवसेना प्रमुख रह चुके स्वर्गीय बाल ठाकरे अमिताभ बच्चन के बारे में यंहा तक कह चुके है कि जंहा लोग भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बारे में नहीं जानते लेकिन वो अमिताभ बच्चन को जानते है ऐसे में उन्हें भारत रत्न दिया जाना सही है | 

Wednesday, 30 December 2020

एलेग्जेंडर ग्राहम बेल

 एलेग्जेंडर ग्राहम बेल एक वास्तविक एवं पितामह थे जिन्होंने टेलीफोन के आविष्कार किया ओर इन्हे एक स्कॉटिश वैज्ञानिक, खोजकर्ता, इंजिनियर और प्रवर्तक के नाम से भी जाने जाते हैं |


 



टेलीफोन के अविष्कार की कहानी –

3 मार्च सन 1847 ईo को एडिन्बुर्ग, स्कॉटलैंड में एलेग्जेंडर बेल का जन्म हुआ था तथा इनका पारिवारिक घर 16 साउथ शेर्लोट स्ट्रीट में था| तथा एलेग्जेंडर ग्राहम बेल के पिता का नाम प्रोफेसर एलेग्जेंडर मेलविल्ले बेल थे जो की एक आवाज / स्वर वैज्ञानिक थे, एलेग्जेंडर ग्रैहम बेल की माता का नाम एलिजा ग्रेस थी। ओर इनकी माता एक गृहिणी थी ,तथा इनकी माता सुन भी नहीं सकती थी | एलेग्जेंडर ग्राहम बेल के 2 भाई है जिनका नाम मेलविल्ले जेम्स बेल और एडवर्ड चार्ल्स बेल था | लेकिन इनकी बीमारी के कारण कम उम्र में ही मौत हो गई थी , 10 साल की उम्र में इन्होंने अपने पिता से अपने दो भाइयो के मध्य नाम की तरह अपना भी मध्य नाम रखने का निवेदन किया था। उनके परिवार और सहकर्मियों के अनुसार बेल बचपन से ही बहुत होशियार थे।


 


वक्तुत्व्कला और भाषणों से संबंधित काम में बेल के पिता, दादा और भाई भी जुड़े हुए थे तथा उनकी माँ ओर पत्नी दोनों कान से नहीं सुन सकते थे | एलेग्जेंडर ग्राहम बेल अपने घर पर ही प्रतिदिन भाषण और बात करने वाले उपकरणों के अविष्कार में लगे रहते थे इनका काम करने की लग्न ओर मेहनत से इनका दिमाग ओर भी तेज हो गए | 


 


एलेग्जेंडर ग्राहम बेल की प्रतिदिन खोज ओर अविष्कार से एक दिन वो एक नई आविष्कार 1876 में टेलीफोन की खोज किये तथा इन्हे बेल को यूनाइटेड स्टेट के पहले पेटेंट अवार्ड से सम्मानित किया गया था।एलेग्जेंडर ग्राहम बेल ने टेलीफोन का अविष्कार कर विज्ञान की दुनिया को सबसे बेहतरीन और सबसे प्रसिद्ध अविष्कार की खोज कर दिया था। टेलीफोन के आविष्कार के बाद एलेग्जेंडर ग्राहम बेल ने अपने जीवन में बहुत से अविष्कार भी किये है| एलेग्जेंडर ग्राहम बेल को दुनिया में टेलीफोन की आविष्कार का पितामह के नाम से भी जाने जाते थे |


 


टेलीफोन की खोज करने के बाद टेलीकम्यूनिकेशन, हीड्रोफ़ोइल और एरोनॉटिक्स जैसे खोज भी बेल ने किया |1898 से 1903 तक नेशनल जियोग्राफिक सोसाइटी में सेवा की और सोसाइटी के दुसरे प्रेसिडेंट के पद पर कार्यरत रहे।


 


 


एलेग्जेंडर ग्राहम बेल की शिक्षा

 


ग्राहम ने स्कूल में ज्यादा शिक्षा ग्रहण नहीं की थी, वे एडिन्बुर्ग रॉयल हाई स्कूल में जाते थे, लेकिन उन्होंने इसे 15 साल की उम्र में छोड़ दिया था. कॉलेज की पढाई के लिए ग्राहम ने पहले यूनिवर्सिटी ऑफ़ एडिन्बुर्ग में गए, इसके बाद लन्दन, इंग्लैंड की भी युनिवेर्सिटी गए लेकिन ग्राहम का यहाँ पढाई में मन नहीं लगा|


 


स्कूल छोड़ने के बाद ग्राहम अपने दादा के साथ लन्दन में रहने लगे, जहाँ उन्होंने इनके बहुत सी शिक्षा ग्रहण की. वे उनके साथ बेहरे लोगों के स्कूल जाया करते थे, और वहां करीब से इसके बारे में जाना करते थे. 1870 में ग्राहम के दोनों भाइयों की मृत्यु के बाद, इनका परिवार कैनेडा रहने चला गया. क्यूंकि इनके पिता को चिंता थी कि अलेक्जेंडर को भी वहां कोई बीमारी न हो जाये. कैनेडा आने के बाद अलेक्जेंडर अपने पिता के साथ काम करने लगे, इन्होने यहाँ ट्रांसमीटिंग टेलीफोनिक मेसेज में काम शुरू किया|


 


16 साल की उम्र में ही बेल वेस्टन हाउस अकैडमी, मोरे, स्कॉटलैंड के वक्तृत्वकला और संगीत के शिक्षक भी बने। इसके साथ-साथ वे लैटिन और ग्रीक के विद्यार्थी भी थे। इसके बाद बेल ने एडिनबर्घ यूनिवर्सिटी भी जाना शुरू किया, और वही अपने भाई मेलविल्ले के साथ रहने लगे थे। 1868 में अपने परिवार के साथ कनाडा शिफ्ट होने से पहले बेल ने अपनी मेट्रिक की पढाई पूरी कर ली थी और फिर उन्होंने लन्दन यूनिवर्सिटी में एडमिशन भी ले लिया था।


 


 

एलेग्जेंडर ग्राहम बेल का पहला अविष्कार

 


बचपन से ही ग्राहम को इस दुनिया के प्रति एक अजीब सी जिज्ञासा थी, वे दुनिया की रचना उसके बारे में करीब से जानना चाहते थे. कम उम्र में ही वे घूम- घूम कर वनस्पति के नमूने इकट्ठे करते और उनके बारे में प्रयोग करते रहते थे. बचपन से ही ग्राहम अपनी माँ के बेहद करीबी थी, उन्हें उस समय गायन, कविता एवं कला में रूचि थी| ग्राहम अपनी माँ के बहरेपन से बहुत दुखी थे, उनसे अच्छे से बात करने के लिए ग्राहम ने हाथ का प्रयोग कर इशारे से बात करने की भाषा सीखी. ग्राहम का पूरा परिवार उनके दादा, पिता, अंकल सब बेहरे लोगों को शिक्षा देने के लिए कार्य किया करते थे, इसके लिए इन्होने बहुत से अविष्कार भी किये थे, जिसे आज भी याद किया जाता है|


 


 


एलेग्जेंडर ग्राहम बेल के अविष्कार

 


Alexander Graham Bell बेल ने सिर्फ 29 साल की उम्र में ही सन 1876 में टेलीफोन की खोज कर ली थी | इसके एक साल बाद ही सन 1877 में उन्होंने बेल टेलीफोन कम्पनी की स्थापना की | इसके बाद वह लगातार विभिन्न प्रकार की खोजो में लगे रहे | बेल टेलीफोन की खोज के बाद उसमे सुधार के लिए प्रयासरत रहे और सन 1915 में पहली बार टेलीफोन के जरिये हजारो किमी की दूरी से बात की | न्यूयॉर्क टाइम्स ने इस घटना को काफी प्रमुखता देते हुए इसका ब्योरा प्रकाशित किया था | इससे न्यूयॉर्क में बैठे बेल ने सेन फ्रांसिस्को में बैठे अपने सहयोगी वाटसन से बातचीत की थी |


 


Alexander Graham Bell बेल शुरू से ही जिज्ञासु प्रवृति के थे और अपने विभिन्न विचारों को अमली जामा पहनाने के लिए लगे रहे थे | इसके अलावा उनकी विभिन्न खोजो पर उनके निजी अनुभवो का प्रभाव था | उदाहरण के तौर पर जब उनके नवजात पुत्र की साँस की समस्याओं के कारण मौत हो गयी , तो उन्होंने एक Metal Vacuum Jacket तैयार किया जिससे साँस लेने में आसानी होती थी | उनका यह उपकरण सन 1950 तक काफी लोकप्रिय रहा और बाद के दिनों में इसमें काफी सुधार किया गया |


 


विज्ञान के क्षेत्र में अनेको खोज अपने आस पास कई लोगो को बोलने और सुनने में कठिनाई होते देख उन्होंने इस दिशा में भी अपना धयान दिया | और सुनने की समस्या का आंकलन करने के लिए ऑडियोमीटर की खोज की | उन्होंने विभिन्न क्षेत्रो के अलावा वैकल्पिक उर्जा और समुद्र के पानी से नमक हटाने की दिशा में भी काम किया | बेल की कई क्षेत्रो में एक साथ दिलचस्पी थी और वह काफी देर तक अध्ययनशील रहते थे | वह देर तक Encyclopedia Britannica पढ़ते है |ग्राहम बेल के नाम 18 पेटेंट दर्ज है | इसके अलावा 12 पेटेंट उनके सहयोगियों के नाम दर्ज है | इन पेटेंटो में टेलीफोन ,फोतोफोन ,फोनोग्राफ और टेलीग्राफ शामिल है |


 


उन्होंने आइसबर्ग का पता लगानेवाला एक उपकरण भी बनाया था जिससे समुद्री यात्रा करने वाले नाविकों को खासकर अत्यधिक ठंडे प्रदेशो में विशेष मदद मिली | यही नही ग्राहम बेल ने चिकित्सा के क्षेत्र में भी काफी काम किया | साँस लेने के लिए उपयोगी उपकरण के साथ ही मूक बधिर लोगो की समस्या दूर करने के लिए भी काम किया | उन्होंने वैज्ञानिकी के क्षेत्र में भी अपने अमिट छाप छोड़ी है | मेटल डिटेक्टर जो आज आतंकवाद सहित अन्य प्रकार के अपराधो से लड़ने में कारगर साबित हो रहा है का आविष्कार भी ग्राहम बेल ने ही किया था |


 


Alexander Graham Bellग्राहम बेल को अपने जीवन में कई पुरुस्कार और सम्मान मिले | इन पुरुस्कारों में से एक था फ्रांस का वोल्टा सम्मान , जो उन्हें टेलीफोन की खोज के लिए दिया गया था | इस पुरुस्कार की स्थापना नेपोलियन बोनापार्ट ने भौतिकीविद वोल्टा के सम्मान में की थी | ग्राहम बेल का निधन 2 अगस्त 1922 को हो गया , पर अपनी महान खोजो के कारण वह जनमानस में सदैव जीवित रहेंगे |

थॉमस अल्वा एडिसन

 अमरीकी आविष्कारक एवं व्यवसायी थॉमस अल्वा एडिसन एक महान व्यक्ति थे | उनके नाम पर 1093 आविष्कारो के पेटेंट दर्ज हैं जो संपूर्ण विश्व मे अपनी महानतम उपलब्धियो के लिए जाने वाले महान वैज्ञानिक हैं | ये वही व्यक्ति है जिन्होंने दुनिया को अंधेरे से मुक्त किया था मेरा मतलब इन्होंने ही विद्युत-बल्ब का अविष्कार किया था |11 फरवरी 1847 में अमेरिका के ओहियो शहर के मिलान गाँव में थॉमस अल्वा एडिसन का जन्म हुआ था | पिता का नाम सेमुएल एडिसन और माँ का नाम नैन्सी एलियट था। वे अपने सातों भी बहनों मे सबसे छोटे थे | सात साल के उम्र मे उनका पूरा परिवार पोर्ट ह्यूरोंन, मिशिगेज चला गया, जहा पर उनके पिता एक बढाई के रूप में फोर्ट ग्रेरियेट में काम करने लगे |


 



थॉमस एडिसन भी सभी बच्चो की तरह पढने के लिए स्कूल गये थे, लेकिन वहां से टीचर ने एडिसन को मंदबुद्धि कह कर स्कूल से बहारबाहर निकाल दिया था। जिसकी की वजह से मात्र 3 महीने के बाद ही स्कूल वालो ने एडिसन को स्कूल से निकाल दिया। जिससे थॉमस एडिसन की पढाई उनके घर उनके माता जी द्वारा दी गई जो खुद एक अध्यापिका थी। आर.जी. पार्कर स्कूल से और दी कूपर यूनियन स्कूल ऑफ़ साइंस एंड आर्ट से थी। एडिसन ने अपनी ज्यादातर शिक्षा प्राप्त की | बचपन में उन्हें एक स्काटलेट ज्वर आया था और उस से उबरते समय उनके दाहिने कान में चोट आ गयी थी। तभी से उन्हें सुनने में थोड़ी-बहुत परेशानी होती थी।


 


जैसे जैसे एडिसन बड़े हुए उनके सुनने की क्षमता कम होती गई और एक समय ऐसा आया की इनके बाएँ कान की सुनने की क्षमता बिलकुल से ख़त्म हो गई लेकिन वो दाये से सुन सकते थे। उन्होंने एक बार खुद ही कहा था की मैंने 12 साल की उम्र के बाद पंछियों का गाना फिर कभी नही सुना। अपनी माँ से पढाई के कारण एडिसन बचपन से ही जिज्ञासु हो गए थेगया था जिससे वो हमेशा कुछ न कुछ किया करते थे। एक बार एडिसन ने किसी से पूछा चिड़ियाँ कैसे उड़ लेती है। तो उसको किसी ने बताया कि वो कीड़े खाती है इसलिए उड़ लेती है। एस बात को सिद्ध करने के लिए इन्होने अपने बगीचे से कुछ कीड़ो को पकड़ा और उसको पीस कर अपने दोस्तों को पिला दिया की शायद वो पंचीपंछी की तरह उड़ने लगे, लेकिन हुआ क्या वो लोग बीमार हो गए। उनके ऐसी सोच को देख कर लोग उनको पागल कहते थे।


 


1862 मे जब इन्होने अपनी जान पर खेलकर स्टेशन मास्टर के बच्चे को एक रेल दुर्घटना मे मरने से बचाया तब इस कारनामे से स्टेशन मास्टर बहुत खुस हुआ और उन्हे इनाम के रूप मे टेलिग्राफ सिखाने का वचन दिया। सन 1868 मे उन्होने अपना टेलिग्राफ पर पहला पेटेंट कराया और उसी वर्ष उन्होने वोट रेकॉर्ड करने की मशीन का अविष्कार भी किया।


 


कुछ समय बाद वो न्यूयॉर्क चले गए काम न मिलने पर वह भी उन्हे कुछ समय ग़रीबी मे गुज़रा, लेकिन कुछ दिन बाद उन्हे स्टॉक एक्सचेंज के टेलिग्राफ ऑफीस मे नौकरी मिल गयी। उन्होंने अपना टेलिग्राफ उपकरण एक्सचेंज 2000 डॉलर मिलने की आस मे प्रेसीडेंट को भेट किया मगर इस टेलिग्राफ उपकरण से इतना प्रभावित हुआ की उसने एडीसन को इसके 40 हज़ार डॉलर दिए यही वो समय था जब उनका समय बदला इन्होने अपनी प्रयोगशाला न्यूजर्सी के मैनलो पार्क मे सन 1876 मे किया |उनके अनेकों अनुसंधान से उन्हे मैनलो पार्क का जादूगर कहा जाने लगा। ग्रामोफ़ोन का अविष्कार उन्होंने सन् 1877 मे किया | सन् 1879 मे एडीसन ने विद्युत बल्ब का अविष्कार भी इसी प्रयोगशाला मे किया | इन्होने तापायनिक उत्सर्जन (Thermionic Emission) के सिद्धांत का अविष्कार किया और बाद मे इसी सिद्धांत पर एलेक्ट्रॉनिक बल्ब बनाए गए। 


 


सिनेमा, टेलीफोन, रिकॉर्ड और सीडी का सृजन इन सभी चीजों का योगदान एडिसन को जाता है | यही नहीं एडीसन के शोधो के आधार पर ही बाद मे रेमिँगटन टाइप रायटर विकसित किया गया। विद्युत से चलने वाला पेन भी खोजा, जो बाद मे मिमोग्रफ के रूप मे विकसित हुआ। सन् 1889 मे उन्होने चलचित्र कैमरा भी विकसित किया। 


 


उन्होंने पुरे US,यूनाइटेड किंगडम, फ्रांस और जर्मनी के 1093 पेटेंट्स अपने कब्जे में कर रखे थे, उनके इन सभी पेटेंट्स का उनके आविष्कारों पर बहुत ही बड़ा प्रभाव पड़ा। वे एक वैज्ञानिक के साथ साथ एक सफल उद्यमी भी थे। वो हर दिन अपने काम करने के बाद बचे समय को प्रयोग और परिक्षण में लगते थे। जिन्हे बचपन मे स्कूल से निकाल दिया गया था कम दिमाग होने की वजह से आज उसी कल्पना शक्ति और स्मरण शक्ति का उपयोग अपने व्यवसाय को आगे बढ़ाने में लगाया। जनरल इलेक्ट्रिक जो आज भी दुनिया की सबसे बड़ी व्यापर करने वाली कंपनी के नाम से जानी जाती है ये वही 14 कंपनियों मे से एक है जिन्हे महान अविष्कारक एडिसन ने स्थापना की थी | 40 युद्धोपयोगी आविष्कार उन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध में जलसेना सलाहकार बोर्ड का अध्यक्ष बनकर किया |


 


21 अक्टूबर 1915 को एडिसन दिवस का आयोजन करके विश्वकल्याण के लिए सबसे अधिक अविष्कारों के इस उपजाता को पनामा पैसिफ़िक प्रदर्शनी ने संमानित किया। नैशनल ऐकैडमी ऑव साइंसेज़ के सदस्य के रूप मे 1927 ई मे निर्वाचित हुए। सन् 1912 मे इन्हे अपने पुराने सहयोगी टेल्सा के साथ नोबेल पुरूस्कार मिलने को था लेकिन टेल्सा एडीसन के साथ नोबेल पुरूस्कार लेने से इनकार कर दिए, इस कारण दोनो ही वैज्ञानिक नोबेल पुरूस्कार से वंचित रह गए।


 


एक दिन फुर्सत के क्षणों में वह अपने पुरानी यादगार वस्तुओं को देख रहे थे। तभी उन्होंने आलमारी के एक कोने में एक पुराना खत देखा और उत्सुकतावश उसे खोलकर देखा और पढा। यह वही खत था जो बचपन में एडिसन के शिक्षक (teacher) ने उन्हें दिया था। उसमें लिखा था आपका बच्चा mentally weak (बौद्धिक तौर पर काफी कमजोर) है उसे अब school ना भेजें। Edison कई घंटों तक रोते रहे और फिर अपनी diary में लिखा – “एक महान मां ने बौद्धिक तौर पर काफी कमजोर बच्चे को सदी का महान वैज्ञानिक बना दिया.


अंत समय मे उन्होंने कहा ”मैंने अपना जीवनकार्य पूर्ण किया। अब मैं दूसरे प्रयोग के लिए तैयार हूँ”, थॉमस एडिसन का निधन 18 अक्टूबर 1931 हो गया| और वो हमे छोर कर चले गए|

अब्राहम लिंकन presidient of america



 अब्राहम लिंकन का जन्म 12 फरवरी 1809 ई. को अमेरिका के केंचुकी नामक स्थान में एक गरीब किसान के घर हुआ था | उनके पिता का नाम टामस लिंकन एंव माता का नाम नैन्सी लिंकन था | उनका पूरा नाम अब्राहम थॉमस लिंकन था उनके पिता एक किसान थे। उनके माता-पिता अधिक शिक्षित नहीं थे इसलिए अब्राहम लिंकन की प्रारंभिक शिक्षा ठीक से नहीं हो सकी | किन्तु, सभी कठिनाइयों पर विजय हासिल करते हुए उन्होंने अच्छी शिक्षा अर्जित की, और वकालत की डिग्री पाने में भी कामयाब रहे। वकील बनने से पहले उन्होंने अनेकों प्रकार की नौकरियां भी की और धीरे – धीरे राजनीति की ओर मुड़ते चले गए। 


 


बात उस समय की है जब देश में गुलामी की प्रथा की समस्याओं चल रही थी। अंग्रेज लोग दक्षिणी राज्यों के बड़े खेतों के मालिक थे, और वह अफ्रीका से आए काले लोगो को अपने खेत में जबर्जस्ती काम करते थे और उन्हें दास के रूप में रखा जाता था। अब्राहम लिंकन 1860 में संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गए थे उस समय उत्तरी राज्यों के लोग गुलामी की इस प्रथा के खिलाफ थे और इसे समाप्त करना चाहते हैं अमेरिका का संविधान आदमी की समानता पर आधारित है।


 


6 नवम्बर 1860 को अमेरिका के 16वें राष्ट्रपति निर्वाचित होने के बाद अब्राहम लिंकन ने ऐसे महत्त्वपूर्ण कार्य किए जिनका राष्ट्रीय ही नहीं अन्तर्राष्ट्रीय महत्व भी था | अब्राहम लिंकन अमेरिका ग्रह-युद्ध सुधारने हेतु 1865 ई. में अमेरिका के संविधान में 13वें संशोधन द्वारा दास-प्रथा के अन्तकरने का श्रेय भी अब्राहम लिंकन को ही जाता है | अब्राहम लिंकन एक अच्छे राजनेता और एक प्रखर वक्ता भी थे | प्रजातंत्र की परिभाषा देते हुए उन्होंने कहा, ‘प्रजातंत्र जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए शासन है |’राष्ट्रपति पद पर रहते हुए भी वो हमेशा विनम्र रहे, बल्कि हर संभव गरीबों की भलाई के लिए भी प्रयत्न करते रहे | दास-प्रथा के उन्मूलन के दौरान अत्यधिक विरोध का सामना करना पड़ा, किन्तु अपने कार्य को समझते हुए वे अंततः इस कार्य को अंजाम देने में सफल रहें | अमेरिका में दास-प्रथा के अंत का अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व इसलिए भी है कि इसके बाद ही विश्व में दास-प्रथा के उन्मूलन का मार्ग प्रशस्त हुआ |


 


4 मार्च 1865 को अब्राहम लिंकन का दुसरी बार शपथ समारोह हुआ। शपथ समारोह होने के बाद लिंकन द्वारा दिया हुआ भाषण बहुत ही मशहूर हुआ। उस भाषण से बहुत लोगो के आँखों मे आसु आ गये। वह किसी के भी खिलाफ नहीं थे और चाहते थे की सब लोग शांति से जीवन व्यतीत करे । लिंकन कभी भी धर्म के बारे में चर्चा नहीं करते थे और न ही किसी चर्चा से संबंध थे। एक बार उनके किसी मित्र ने उनसे उनके धार्मिक विचार के बारे में पूछा। लिंकन ने कहा – “बहुत पहले मैं इंडिया में एक बूढ़े आदमी से मिला जो यह कहता था ‘जब मैं कुछ अच्छा करता हूँ तो अच्छा अनुभव करता हूँ और जब बुरा करता हूँ तो बुरा अनुभव करता हूँ’। यही मेरा धर्म है”।


 


मृत्यु –

वॉशिंग्टन के फोर्ड थियेटर में ‘अवर अमेरिकन कजिन’नामक नाटक देखते समय 14 अप्रैल 1865 को ज़ॉन विल्किज बुथ नाम के युवक ने उनको गोली मार दी |15 अप्रैल के सुबह अब्राहम लिंकन की मौत हो गई | उनकी हत्या के बाद अमेरिका में विद्वानों की एक सभा में कहा गया, ‘अब्राहम लिंकन की भले ही हत्या कर दी गई हो, किन्तु मानवता की भलाई के लिए दास-प्रथा उन्मूलन का जो महत्वपूर्ण कार्य किया है, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता | अब्राहम लिंकन अपने विचारों एवं कर्मों के साथ हमारे साथ हमेशा रहेंगे |

संदीप महेश्वरी motivational speaker



 संदीप माहेश्वरी युवाओं के लिए प्रेरक और आज का सबसे प्रासंगिक नाम है. भारत के शीर्ष उद्यमियों में तेजी से उभरने वाले नामों में एक नाम संदीप महेश्वरी का भी है. संदीप महेश्वरी ने ये सफलता काफी कम समय में हासिल की है. संदीप इमेजबाजार.कॉम के संस्थापक और चीफ एक्सक्यूटिव ऑफिसर हैं. इमेज बाजार भारतीय वस्तुओं और व्यक्तियों का चित्र सहेजने वाली सबसे बड़ी ऑनलाईन साइट है. इसके पोर्टल में एक लाख से भी अधिक नये मॉडलों की तस्वीरें संरक्षित है. इतना ही नहीं कई हजार कैमरामैन इस वेबपेज के साथ काम करते हैं. तीव्र बुद्धि के स्वामी संदीप को इस कार्य के लिए न सिर्फ काफी मेहनत नहीं करनी पड़ी, बल्कि उन्होंने अपने दिमाग का सही उपयोग कर इसे हासिल किया.



संदीप सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि देश विदेश में काफी नाम कमा चुके हैं. संदीप युवाओं को आगे लाने के लिए, उनके भविष्य को लेकर उन्हें निराशा से बाहर निकालने के लिए कई जगह सेमिनार भी आयोजित कराते हैं. उनका ‘फ्री मोटिवेशनल लाइफ चेजिंग सेमिनार्स’ काफी प्रसिद्ध है. 34 वर्षीय संदीप अपने जीवन में कई संकटों का सामना करते हुए इस मुकाम पर पहुँचें है.


संदीप माहेश्वरी के बारे में आवश्यक जानकारी



28 सितम्बर 1980 को सन्दीप महेश्वरी का जन्म दिल्ली में हुआ था. संदीप बचपन से ही बहुत कुछ कर करने के बारे में सोचते थे. वे अपने बचपन के बारे में खुलकर कभी ज्यादा बात नहीं करते हैं. उनके पिता कारोबारी थे. संदीप के पिता का एल्युमीनियम का कारोबार था. लगभग दस साल चलने के बाद ये व्यापार ठप्प हो गया. परिवार की सहायता के लिए उन्होंने मां के साथ मिलकर मल्टी लेवल मार्केटिंग कंपनी को ज्वाइन किया, जिसमें घर में ही चीजों को बनाना और बेचना होता था.



एमएलएम का काम भी ज्यादा दिन नहीं चला. पिता का कारोबार थम जाने के कारण संदीप का पूरा परिवार आर्थिक संकट से जूझने लगा. सन्दीप के पिता काफी परेशान रहते थे. इस संकट की घड़ी में संदीप के परिवार ने टूटने की अपेक्षा खुद को और ज्यादा संगठित किया. उसी समय से संदीप अपने परिवार के लिए कुछ करना चाहते थे. इस छोटे व्यवसाय के बाद उन्होंने और भी कई काम शुरु किये, जो ज्यादा दिनों तक नहीं चले. अंत में उन्होंने परिवार चलाने के लिए पीसीओ का काम आरंभ किया. चुंकि उस समय मोबाइल उतना नहीं था, तो ये काम कुछ दिनों के लिए अच्छा चला. उनकी मां ये काम संभालती थी.


संदीप माहेश्वरी की शिक्षा 


संदीप को परिवारिक और आर्थिक संकट के कारण बीच में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ी. दिल्ली के करोड़ीमल कॉलेज से वे कामर्स में स्नातक कर रहे थे, और 2000 में उन्होंने फोटोग्राफी करना आरंभ किया था, और आरंभ में कई तरह से उसे पेशे के रूप में अपनाने की कोशिश की. इसी सिलसिले में कुछ मित्रों के साथ एक छोटा सा व्यवसाय भी आरंभ किया, किन्तु वे सभी असफल हो गये. किस्मत ने उनके लिए कुछ और ही चुना था.


संदीप माहेश्वरी के जीवन में बदलाव 

संदीप माहेश्वरी निराशा के साथ जीने लगे थे, लेकिन उसी समय एक बार उन्होंने एक मल्टी लेवल मार्केटिंग कंपनी के सेमिनार परिचर्चा में दोस्तों के साथ हिस्सा लिया. 18 साल के संदीप की परिपक्वता उतनी नहीं थी, उन्हें सेमिनार में कुछ समझ नही आया था, उन्होंने जो कुछ भी सुना सब उनके लिए अन्जानी सी बात थी. उस 21 साल के लड़के ने संदीप को एक बार फिर से अपनी निराशा से संघर्ष करने का हौसला दिया. इस हौसले के साथ ही संदीप को नये तरह की उद्यम आरंभ करने की प्रेरणा मिली, और यह भी कि वो अपनी तरह कई युवाओं को जीवन संघर्ष में प्रेरित कर सकते हैं.


अब सन्दीप ने ठान लिया कि वह 21 साल के लड़के की तरह ही नया उद्यम आरंभ करेंगे, ये आवाज उसके अंर्तमन से आ रही थी. ये विचार आते ही वो अपने कुछ मित्रों को संग लेकर उस लडके की कम्पनी में गये पर वहाँ कुछ हाथ नहीं लगा. किसी को कंपनी ने नहीं रखा, मित्र भी उनकी खिल्ली उड़ाने लगे थे. इस असफलता ने उन्हें थोड़ी सा पीछे कर दिया पर हरा नहीं पाई. संदीप असफलताओं का मूल्यांकन करने लगे. उन्होंने अपनी गलतियों को सुधारने का उपाय सोचा और उन्हें लगा कि शायद साझेदारी पर विश्वास न करके भूल की है. संदीप को लगने लगा कि जब तक आप संघर्ष के कटुत्कित अनुभव से नहीं गुजरते हैं, सफलता आपको नहीं मिलेगी. इसके बाद उन्होने कई और असफल प्रयास किये.



संदीप माहेश्वरी की फोटोग्राफी


मॉडलिंग के दौरान एक मित्र कुछ तस्वीर लेकर उनके पास आया. उन तस्वीरों को देखकर उन्हें लगा कि उनके अंतरत्मा की आवाजा इसी व्यवसाय के लिए आ रही है. उन्होंने कुछ जानकारी हासिल कर 2 सप्ताह के फोटोग्राफी के प्रशिक्षण कोर्स में दाखिला ले लिया . कोर्स ज्वाइन करने के बाद उन्होंने एक मंहगा कैमरा भी खरीदा और तस्वीर खींचना आरंभ कर दिया. फोटोग्राफी कोर्स पूरा करने के बाद भी उनके लिए रास्ता कठिन ही था. उन्होंने देखा कि देश में लाखों लोग फोटोग्राफर के पेशा के लिए धक्का खा रहे हैं. उन्हें लगने लगा कि ऐसा क्या करना चाहिए जो फोटोग्राफी को दूसरे लेवल पर ले जाकर नया व्यवसाय का रूप दे. उन्होंने हिम्मत जुटाकर एक अखबार में फ्री पोर्ट फोलियो का विज्ञापन दिया, और उस विज्ञापन को पढ़कर कई लोग आये. उन लोगों से ही जिंदगी की पहली कमाई का सिलसिला आरंभ हुआ. फोटोग्राफी का व्यापार आरंभ हो गया. और धीरे धीरे इसका विस्तार करते हुए उन्होंने एक विश्व रेकार्ड 12 घंटे में 100 मॉडल्स के 10000 फोटो खींच कर लिम्का बुक्स में अपना नाम दर्ज कर लिया. इस रेकार्ड के बाद उनके पास काम की तादाद और ज्यादा बढ़ने लगी.


संदीप माहेश्वरी की इमेजबाजार कंपनी


लिमका बुक में नाम दर्ज करने के बाद उनको काफी व्यवसाय मिलने लगा. इसी रेकार्ड के कारण उनके पास कई मॉडल्स और विज्ञापन कंपनियां आने लगी, और देखते ही देखते कुछ ही अवधि में उनकी कम्पनी भारत की बड़ी फोटोग्राफी एजेंसी बन गयी. पैसों की कोई कमी नहीं रही. 2006 में संदीप के दिमाग में एक नया ख्याल आया और उसी ख्याल से उपजा ऑनलाइन इमेज बाजार शेयरिंग साईट. ये देश की सबसे बड़ी ऑनलाइन फोटोग्राफी की कम्पनी है. अभी उनके पास 45 देशों से लगभग 7000 से ज्यादा क्लाईंट है. अब संदीप भी शेयरिंग पर सेमिनार देते हैं और लाखों युवाओं को प्रेरित करते हैं.


संदीप के जीवन की महत्वपूर्ण वर्ष 


2000 बिना किसी स्टूडियो के फोटोग्राफी का कार्य आरंभ.

2001 अपना कैमरा बेच दिया और जापानी कंपनी में काम करने लगे.

2002 कुछ मित्रों के साथ नयी कंपनी बनाई, लेकिन कुछ ही दिनों के बाद ये कंपनी बंद हो गई.

2003 मार्केटिंग को लेकर एक किताब लिखी, कंसलटेन्सी फार्म की स्थापना की, फिर असफल हो गये. फोटोग्राफी में लिमका बुक में रेकार्ड दर्ज किया.

2004 छोटा स्टूडियो लेकर एक फर्म की स्थापना की.

2005 फोटोग्राफी वेबसाईट का नया आइडिया आया और उस पर काम करने लगे.

2006 imagesbazaar.com को लांच किया, सिर्फ 8,000 तस्वीरें थी और कुछ फोटोग्राफर शामिल थे. इसके बाद संदीप ने पीछे मुड़कर नही देखा.

संदीप महेश्वरी की सफलता और पुरस्कार 


उन्हें क्रिएटिव एंतोप्रेन्टोरिय़र ऑफ द ईयर 2013 का पुरस्कार “Entrepreneur India Summit” के द्वारा 2014 में प्रदान किया गया.

“Business World” पत्रिका ने उन्हें शीर्ष उद्ममी के रूप में चुना गया.

ग्लोबल मार्केटिंग फोरम के द्वारा स्टार यूथ एचिहिवर के रूप में चुना गया.

ब्रिटिश हाई कमीशन की तरफ से इन्हे युवा उद्यमी का पुरस्कार मिला

ईटी नाउ चैनल के द्वारा शीर्ष उद्यमी का पुरस्कार मिला.

इसके साथ साथ कई चैनलों ने इन्हें वर्ष का उद्यमी घोषित किया.

संदीप माहेश्वरी के अनमोल वचन 


संदीप का मानना है कि हर किसी के अंदर उसका गुरू रहता है. सही समय पर आप उस गुरू की अनुभूति कीजिए. संदीप अब युवाओं के लिए गुरू की तरह है. लोग उनके द्वारा कहे गये शब्दों को ध्यान से सुनते है और अपने जीवन में लाने की कोशिश भी करते हैं. संदीप के जीवन का सबसे बड़ा शब्द है ‘आसान’. उनका मानना है जीवन में कुछ भी कठिन नहीं है, सभी कुछ आसान है. सिर्फ पूरी शिद्दत से आप खुद के लक्ष्य के पीछे लगे रहिए.


वे कहते हैं –


‘यदि आपके पास चीजों का आधिक्य है तो आप उसे सिर्फ अपने लिए ही संरक्षित ना रखें,उसे जरूरतमंदों के साथ शेयर करें.’

सभी से सीखो पर सबका अनुसरण मत करो.

मनुष्य की सबसे संरचनात्मक और विनाशात्मक चीज है उसकी लालसा.

ना भागना है, ना रूकना है, बस चलते जाना है. पैसे की उतनी ही जरूरत है जितना गाड़ी में पेट्रोल

जब भी कठिनाइयों से डरो तो अपने से नीचे के लोगों को देखो.

मुकेश अंबानी


 

मुकेश अंबानी को भारत में सबसे धनी व्यक्तियों में से एक माना जाता है – 2014 में उन्हें फोर्ब्स द्वारा भारत के सबसे अमीर व्यक्ति और 2015 तक दुनिया के 39 वें सबसे अमीर व्यक्ति के रूप में गिना जाने लगा। 2014 में, वह 40 वें स्थान पर थे। वह रिलायंस इंडस्ट्रीज के अध्यक्ष, प्रबंध निदेशक के सबसे बड़े शेयर होल्डर भी है जो कि भारत की एक निजी फॉर्च्यून ग्लोबल 500 कंपनी है।


अनुमान है कि कंपनी में उनके 44.7% शेयर हैं। बाजार मूल्य के मामले में रिलायंस अग्रणी भारतीय कंपनियों में से एक है। वह मुंबई इंडियंस के मालिक भी हैं, जो इंडियन प्रीमियर लीग की एक टीम हैं। फोर्ब्स के अनुसार उनकी संपत्ति का मूल्य 22.2 अरब अमेरिकी डॉलर है, जिससे वे हमारे भारत के सबसे अमीर व्यक्ति के रूप में जाने जाते हैं, हालाँकि रिलायंस इंडस्ट्रीज में उनकी हिस्सेदारी 48 % है।


प्रारंभिक जीवन और उनकी शिक्षा 

मुकेश अंबानी की शुरूआती शिक्षा मुंबई के अबाय मोरिस्चा स्कूल में हुयी तथा उन्होंने कैमिकल इंजीनियरिंग में स्नातक की डिग्री यूडीसीटी से प्राप्त की। बाद में मुकेश अंबानी एम बी ए करने के लिये स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय भी गए किन्तु पहले वर्ष के बाद ही उन्होंने अपनी पढ़ाई को छोड़ दिया। मुकेश अम्बानी का जन्म 19 अप्रैल, 1957 में यमन में स्थित अदेन शहर में हुआ था। 


 


उनकी माँ का नाम कोकिलाबेन अंबानी था और पिता का नाम धीरुभाई अंबानी था, जो कि एक प्रसिद्ध उद्योगपति थे। इसके अलावा उनकी दो बहने भी है जिनका नाम दीप्ती सल्गओंकर और नीना कोठारी है। मुकेश अंबानी के एक छोटे भाई है, जिनका नाम अनिल अंबानी हैं। उनके पिता धीरुभाई अंबानी अदेन में ही काम करते थे। 1970 के दशक तक मुकेश अंबानी का परिवार मुंबई के भुलेश्वर में दो कमरों के एक मकान में गुजारा किया करता था पर कुछ सालों बाद धीरुभाई ने मुंबई के कोलाबा में एक 14 मंजिल ईमारत जिसका नाम (सी विंड) था उसको खरीद लिया जहाँ मुकेश अम्बानी परिवार के सभी अन्य सदस्य कई सालों तक वहां रहे।


व्यक्तिगत जीवन 

मुकेश अंबानी ने नीता अंबानी से शादी किया हैं। उनकी एक बेटी है – ईशा अंबानी और दो बेटे है – आकाश अंबानी और अनंत अंबानी। वे वर्तमान में एंटीलिया (भवन) में रह रहे हैं, जो कि 27 मंजिला ईमारत हैं। घर की कीमत एक अरब डॉलर है और इसीलिये इसे दुनिया का सबसे महंगा घर कहा जाता है। एंटीलिया दक्षिण मुंबई, भारत में एक निजी घर है। इसका स्वामित्व रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन मुकेश अंबानी के पास है और दिन में 24 घंटे इस निवास की देखरेख के लिए 600 कर्मचारी हैं।


 


मुकेश अंबानी 90 किलो के स्वस्थ शरीर के साथ 5 फीट 6.5 इंच लंबे है। उनके बालों का रंग कला है। वह मेष राशि के है और उनका धर्म हिंदू है। व्यवसाय के अलावा, उनके शौक है- फिल्में देखना, पुराने हिंदी गाने सुनना और तैराकी करना। उनके पास कई लक्जरी कारें जैसे बेंटले फ्लाइंग स्पूर, रोल्स रॉयस प्रेत और बी एम डब्ल्यू 760li है । उनका निजी पसंदीदा वाहन लगभग 25 करोड़ रुपये की एक अनुकूलित वैनिटी वैन है। इसके अलावा, वह बोइंग बिजनेस जेट 2 और फाल्कन 900EX के मालिक भी है।


 


एक अरबपति होने के बावजूद, वह एक सादा जीवन जीना पसंद करते है। आम तौर पर, वह एक साधारण शर्ट और एक काला पैंट पहनते है और किसी भी ब्रांड का पालन नहीं करते है। वह एक गुजराती व्यक्ति हैं।उन्हें गुजराती व्यंजन खाने का शौक है। उनके पसंदीदा व्यंजन पानकी, डोसा, चाट और भुनी हुयी मूंगफली हैं।


व्यवसाय 

अंबानी ने केमिकल टेक्नोलॉजी संस्थान के गवर्नर्स बोर्ड पर कार्य किया है। वह पहले भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड के उपाध्यक्ष भी रहे हैं और वर्तमान में रिलायंस पेट्रोलियम में बोर्ड के अध्यक्ष हैं। वह रिलायंस रिटेल लिमिटेड की लेखा परीक्षा समिति के अध्यक्ष के रूप में भी काम करते है। वह रिलायंस एक्सप्लोरेशन एंड प्रोडक्शन डीएमसीसी के अध्यक्ष हैं। वह गांधीनगर गुजरात में पंडित दीनदयाल पेट्रोलियम विश्वविद्यालय के अध्यक्ष के रूप में भी कार्य करते हैं।


 


1981 में मुकेश अंबानी परिवार के कारोबार में शामिल हो गए थे। यह धीरूभाई अंबानी ही थे जिन्होंने रिलायंस शुरू किया था। मुकेश अंबानी ने केवल कपड़ा से लेकर क्षेत्रों तक पॉलिएस्टर फाइबर, पेट्रोलियम परिष्करण और पेट्रोकेमिकल्स के रूप में विविधता से कंपनी की गतिविधियों का विस्तार शुरू किया पर बहुत जल्द, वह तेल और उत्पादन और प्राकृतिक गैस की खोज में भी आगे बढ़ गए।


 


सन 1980 के समय जब इंदिरा गाँधी सरकार ने पी एफ वाई (पॉलिएस्टर फिलामेंट यार्न ) का निर्माण निजी क्षेत्रों के लिए खोला तब रिलायंस ने भी लाइसेंस को पाने के लिये इसमें भाग लिया और टाटा, बिरला तथा 43 और भी बड़ी बड़ी कंपनीयों के मध्य लाइसेंस पाने में उन्होंने कामयाबी भी प्राप्त कर ली। पीएफवाई (पॉलिएस्टर फिलामेंट यार्न) कारखाने का जब निर्माण होने लगा तो धीरुभाई अंबानी ने मुकेश अंबानी को एमबीए की पढ़ाई के बीच में ही बुला लिया और इस तरह मुकेश अंबानी ने अपनी पढ़ाई छोड़ दी और वह भारत वापस आ गए और कारखाने के निर्माण के कार्य में मेहनत से कार्य करने लगे।


 


मुकेश अम्बानी के मेहनत पूर्ण कार्य से ही रिलायंस ने भारत की सबसे बड़ी दूरसंचार कंपनियों में से एक जो कि ‘रिलायंस इन्फोकॉम लिमिटेड’ ( रिलायंस कम्युनिकेशन लिमिटेड) की स्थापना की। मुकेश अंबानी ने गुजरात के जामनगर में एक बुनियादी स्तर की विश्व की सबसे बड़ी पेट्रोलियम रिफायनरी की स्थापना करने में महत्त्वपूर्ण योगदान भी दिया। सन 2010 में इस रिफायनरी की क्षमता 660,000 बैरल प्रति दिन हुआ करती थी यानी 3 करोड़ 30 लाख टन प्रति वर्ष थी। लगभग 100000 करोड़ रुपयों के निवेश से बनी इस रिफायनरी में पेट्रोकेमिकल, पावर जेनरेशन, पोर्ट तथा सम्बंधित आधारभूत ढांचा है।


 


रिलायंस इंडस्ट्रीज ने एक बार फिर से ‘रिलायंस जिओ’ के माध्यम से दूरसंचार के क्षेत्र में एक नया कदम रखा। मुकेश अंबानी ने आज 4G सेवाएं प्रारंभ कर दी है। जो कि आज की दुनिया में लोगों को आकर्षित कर रही है। इन्ही जिओ 4G के बेहतरीन ऑफर के कारण ही आज गाँव से लेकर शेहर तक लोग तेज़ इन्टरनेट का उपयोग कम दामों में कर पा रहे हैं।


पुरस्कार Awards

2007 में मुकेश अंबानी एन डी टीवी के द्वारा “बिज़नसमैंन ऑफ़ द ईयर” से पुरुस्कृत किये गये।

यू एस आई वी सी ने बाशिंगटन में “ग्लोवल विजन” के पुरुस्कार से सराहा गया।

2007 में उन्हें “चित्रलेखा पर्सन ऑफ़ द ईयर” के पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

2004 मई में एशिया सोसाइटी, वॉशिंगटन डी सी द्वारा मुकेश अंबानी को “एशिया सोसाइटी लीडरशिप” अवार्ड प्रदान किया गया था।